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आचारदिनकर (खण्ड- -8)
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
उनचालीसवाँ उदय तप-विधि
अब तप की विधि बताते हैं । वह इस प्रकार है
तप - महिमा - तप-विधान
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जो अत्यन्त दुस्साध्य हैं, जो कष्टसाध्य हैं तथा जो दूरस्थ हैं वे सब वस्तुएं तपस्या द्वारा ही साध्य होती हैं, क्योंकि तपस्या का प्रभाव दुरितक्रम है, अर्थात् उसका कोई उल्लघंन नही कर सकता । जो व्यक्ति शिवकुमार की तरह गृहस्थ आश्रम में रहकर भी तपस्या का आचरण करता है, वह देवसभा में भी कांति, द्युति, महत्ता और स्फूर्ति को प्राप्त करने वाला (देव) होता है । जैसे अग्नि के प्रचण्ड तप में तपने से जिसका वर्ण उज्ज्वलता को प्राप्त होता है तथा ऐसा सुवर्ण सर्व धातुओं में विशिष्टता एवं श्रेष्ठता को प्राप्त करता है, उसी प्रकार तप करने वाला मनुष्य सर्व मनुष्यों में शिरोमणि एवं विशिष्टता प्राप्त करता है । तप समग्र कर्म का भेदन करने वाला तथा विविध प्रकार की लब्धि को प्राप्त करने वाला है । नंदिषेण नामक ब्राह्मण जो स्वयं के घर में तथा नगर में भी महादुर्भागी माना जाता था, वह भी चारित्र ग्रहण करने के पश्चात् शमयुक्त तप में तत्पर होने से देव तथा मनुष्य द्वारा वंदन करने के योग्य हुआ, क्योकि सूर्य तथा अग्नि से तपाया हुआ कच्चा घड़ा भी कांति को प्राप्त करता है। तीर्थंकरों तथा गीतार्थ मुनियों ने जिस तप की जो विधि कही है, उस तप को उसी विधि से करने वाला मनुष्य मनवांछित सिद्धियों को प्राप्त करता है अगर दान देने की शक्ति न हो, तो पुण्यवंत मनुष्यों को स्वयं की शारीरिक-शक्ति के अनुसार अत्यंत दुष्कर, ऐसा तपकर्म अवश्य करना चाहिए । तप बारह प्रकार का होता है। इसके दो भेद हैं - १. बाह्यतप और २. आभ्यंतरतप । उपवासादि करना छः प्रकार का बाह्यतप है । तीर्थंकरों एवं मुनिवरों ने क्रमपूर्वक तप की विधि बताई है। उनमे से कुछ तप केवली द्वारा भाषित हैं, कुछ तप गीतार्थ मुनिवरों द्वारा
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