SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 266 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि प्रत्याख्यान-दण्डक का उच्चारण करके यदि कोई सामायिक ग्रहण करे, तो सामायिक एवं प्रत्याख्यान-दण्डक का ग्रहण होने से उसके मध्यगत आगारों (अपवादों) के कारण अतिचारों के लगने पर भी उसका सामायिक एवं प्रत्याख्यान अखण्ड रहता है, किन्तु मन से उन अतिचारों का आदर करने पर, अर्थात् दण्डक का उच्चारण न करके अतिचारों के लगने पर सामायिक एवं प्रत्याख्यान का भंग होता है। सामायिक एवं प्रत्याख्यान का भंग होने पर प्रायश्चित्त-विधि में कहे गए अनुसार प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए तथा परमात्मा की पूजा, गुरु का सम्मान, सिद्धान्त का पठन, मुनि, जिनबिम्ब एवं पुस्तक का आदर करना, धर्मोपदेश का श्रवण करना, धर्मशास्त्र की व्याख्या करना अथवा गुरु की उपधि आदि की प्रतिलेखना करना, परमेष्ठीमंत्र का जाप करना, स्तोत्र का पाठ करना भी योग्य है। धर्म में लयलीन होकर विचक्षणों को सर्व आवश्यक करने चाहिए। मध्याहून से मध्यरात्रि सम्बन्धी कर्म को दैवसिक एवं मध्यरात्रि से मध्याह्न तक किए जाने वाले कर्म को रात्रिक (कर्म) कहते हैं। इस प्रकार आचार्य श्री वर्धमानसूरिविरचित आचारदिनकर के उभयधर्मस्तम्भ में षड् आवश्यक नामक अड़तीसवाँ उदय समाप्त होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy