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आचारदिनकर (खण्ड-४) 254 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
श्रावक-श्राविका निम्न गाथा बोलकर परस्पर क्षमापना करें"बारमासे चउवीस पक्खे तिणिसयसठराइदियाणं भणइ भासइ तस्स मिच्छामि दुक्कडं।"
इस प्रकार सभी प्रतिक्रमणों की विधि बताई गई है। दिन के अन्तिम प्रहर का बहुत कुछ भाग व्यतीत हो जाने पर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना एवं मध्यम चैत्यवंदन करे और फिर प्रतिक्रमण करे। साधु रात्रि में संथारा करे तथा दिन के प्रथम प्रहर में मुखवस्त्रिका एवं पात्र की प्रतिलेखना करे। रात्रि का प्रथम प्रहर व्यतीत होने पर साधु कहे"भगवन् बहुपडिपुन्ना पोरसी राइसंथारए ठामि। तत्पश्चात् मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके शक्रस्तव का पाठ बोलकर मध्यम चैत्यवंदन करे।
श्रावक यदि व्यग्र हो, प्रतिक्रमण करने की समुचित स्थिति में न हो, तब श्रावक प्रभात एवं संध्या के समय गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करे। तत्पश्चात् उत्कृष्ट चैत्यवंदन द्वारा देववन्दन करे। उसके बाद गुरु के आगे मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके द्वादशावर्त्तवन्दन करे। तत्पश्चात् आलोचना का पाठ बोले। उसके बाद प्रत्याख्यान करे। ज्ञानपूजा, रात्रिक, मंगल, दीपक करने के बाद श्रुत का कायोत्सर्ग करे, अर्थात् श्रुतस्तवं बोलकर पूर्ववत् श्रुत का कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में नमस्कारमंत्र का स्मरण करे तथा कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर श्रुत की स्तुति करे। तत्पश्चात् बोले -"यह जिनेन्द्र भगवान महावीर का श्रेष्ठ शासन तत्त्व के समग्र स्वरूप का उपदेशक, निवृत्तिमार्ग का प्रकाशक तथा मिथ्यादर्शनों का प्रनाशक है।
इस प्रकार प्रतिक्रमण-आवश्यक की विधि बताई गई है। अब कायोत्सर्ग की विधि बताते हैं -
जिनचैत्य, श्रुत, तीर्थ, ज्ञान, दर्शन, चारित्र - इन सब की पूजा एवं आराधना करने के लिए "वंदणवत्तियाए" का पाठ बोलकर कायोत्सर्ग करना चाहिए। प्रायश्चित्त-विशोधन के लिए, उपद्रव के निवारण के लिए, श्रुतदेवता के आराधन के लिए एवं समस्त चतुर्निकाय देवताओं के आराधन के लिए, "वंदणवत्तियाए" पाठ की जगह “अन्नत्थसूत्र" बोलकर कायोत्सर्ग करे। इसी प्रकार गमनागमन
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