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आचारदिनकर (खण्ड-४) 253 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि अजितशान्ति का पाठ बोलते हैं। चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की भी यही विधि है। मात्र इतना विशेष है कि चातुर्मासिक आलोचना में गुरु कहते हैं -"अपनी इच्छानुसार निरन्तर दो उपवासपूर्वक प्रतिक्रमण करो और चातुर्मासिक-प्रायश्चित्त हेतु दो उपवास या चार आयम्बिल, अथवा छः नीवि, अथवा आठ एकासना, अथवा चार हजार स्वाध्याय आदि तपस्या करते हुए अग्रिम पक्ष में प्रवेश करो।
चातुर्मासिक-प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग में बारह बार चतुर्विंशतिस्तव के स्थान पर बीस बार चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे। सांवत्सरिक-प्रतिक्रमण में गुरु कहते हैं - "अपनी इच्छानुसार निरन्तर तीन उपवासपूर्वक प्रतिक्रमण करो और सांवत्सरिकआलोचना हेतु तीन उपवास या छः आयम्बिल या नौ नीवि या बारह एकासना, अथवा छः हजार गाथा का स्वाध्याय आदि तपस्या करते हुए अग्रिम वर्ष में प्रवेश करो।"
' सांवत्सरिक-प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग में चालीस चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे। रात्रि-प्रतिक्रमण में देवसिक के स्थान पर सब जगह "राईयं" शब्द का उच्चारण करे। इसी प्रकार चातुर्मासिक-प्रतिक्रमण में सब जगह “चाउमासिए“ एवं सांवत्सरिक- प्रतिक्रमण में सब जगह "संवत्सरिए" शब्द का उच्चारण करे। चातुर्मासिक-क्षमापना में साधु "चउण्हं मासाणं अट्ठाणं पक्खाणं वीसुत्तरसयराईदियाणं ज किंचि अपत्तियं., अर्थात् चार मास, आठ पक्ष एवं एक सौ बीस रात्रि-दिवस में मेरे द्वारा जो कुछ अप्रीतिकर ....... शेष पूर्ववत्। - इस प्रकार बोलकर ज्येष्ठ, कनिष्ठ के क्रम से साधुओं एव श्रावकों आदि से क्षमापना करते हैं। श्रावक-श्राविका के परस्पर क्षमापना करने की गाथा निम्नांकित है
चातुर्मासिक-प्रतिक्रमण में "चारिमास अट्ठपक्ख वीसोत्तरसयराइदियाणं भणइ भासियइ बोलइ चालियइ तस्स मिच्छामि दुक्कड।" सांवत्सरिक-क्षमापना में साधु "द्वादशीण्हं मासाणं चउव्वीसाणं पक्खाणं तिणिसयसठराइदियाणं जं किंचि."- इस प्रकार बोले।
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