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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 252 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि एवं मिथ्यादर्शन शल्य किया हो, तो तत्सम्बन्धी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो। तत्पश्चात् पुनः द्वादशावर्त्तवन्दन करे। तत्पश्चात् सभी गुरु के आगे कहते हैं - "देवसियं आलोइयं वइक्कंतं पक्खियं पडिक्कमावेह", अर्थात् दिवस एवं पक्ष सम्बन्धी प्रतिक्रमण कराए। प्रत्युत्तर में गुरु कहते हैं - "सम्म पडिक्कमह", अर्थात् सम्यक् प्रकार से प्रतिक्रमण करो। तत्पश्चात् सामायिकसूत्र, आलोचनासूत्र, तस्सउत्तरी एवं अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे। उस समय मुनि भगवंतों में से कोई भी एक मुनि दो बार खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहे-"भगवन् पाक्षिकसूत्र पढ़ने की अनुज्ञा दे, भगवन् पाक्षिक सूत्र पर्दू", प्रत्युत्तर में गुरु कहते हैं - "हाँ पढ़ो।" तत्पश्चात् (वह) खड़ा होकर पाक्षिकसूत्र बोलता है। अन्य सभी दोनों हाथों को लम्बा रखकर, अर्थात् कायोत्सर्ग -मुद्रा में पाक्षिकसूत्र का श्रवण करते हैं। पाक्षिकसूत्र पूर्ण होने पर कायोत्सर्ग पूर्ण करके नमस्कारमंत्र बोले। तत्पश्चात् पुनः प्रतिक्रमणसूत्र (पगामसिज्झाए आदिसूत्र) बोले। उसके बाद सामायिक का पाठ, आलोचना का पाठ आदि बोलकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में बारह बार चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे। कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट रूप में चतुर्विंशतिस्तव बोले। तत्पश्चात् मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके द्वादशावर्त्तवन्दन करे। उसके बाद सभी “समाप्ति खामणेणं पक्खियं खामेमि जं किंचि." का पाठ बोलें। उसके बाद खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके “पियं च मे जम्भे." गाथा बोले। प्रत्युत्तर में गुरु कहते हैं - "तुब्भे साहूहिं समंति।" पुनः शिष्य खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके "पुब्बिं चेइआई." गाथा बोलता है। प्रत्युत्तर में गुरु कहते हैं-"अहमविचेइआई वंदावेमि।" पुनः शिष्य खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके “अब्भुट्टियो." गाथा बोलता है। प्रत्युत्तर में गुरु कहते हैं-"नित्थारग पारगो होह", अर्थात् संसार-सागर से पार होओ। तत्पश्चात् शिष्य कहता है -“इच्छाकारि पाक्षिक हुयओ (अतः) परूदेवसी पडिक्कमावउ", अर्थात् हे भगवन्! पाक्षिक-प्रतिक्रमण हो गया, अब पुनः शेष देवसिक प्रतिक्रमण कराएं। तत्पश्चात् दैवसिकप्रतिक्रमणसूत्र के बाद की जो विधि है, वह विधि करे। यहाँ इतना विशेष है कि भुवनदेवता आदि की स्तुति होती है, स्तोत्र के स्थान पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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