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________________ आचारदिनकर ( खण्ड - ४) 251 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि खामेमि पक्खियं जं किंचि " - इस प्रकार कहकर क्षमापना करे । पुनः खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके गुरु भगवंत के सुख-शांति एवं तप के बारे में पूछे। पुनः खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके पाक्षिक सुखशाता पूछे । पुनः खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके पक्षदिवस सम्बन्धी अभक्ति एवं आशातना की मन, वचन एवं काया से क्षमापना करे । तत्पश्चात् शिष्य गुरु एवं ज्येष्ठ मुनियों से क्रमपूर्वक क्षमापना करे। शिष्य जिस समय कहे - "भगवन् पक्खियं खामेमि", अर्थात् पाक्षिक-क्षमापना करता हूँ, उस समय गुरु कहते हैं, " अहमवि खामेमि तुब्भे", अर्थात् मैं भी तुमसे क्षमायाचना करता हूँ । शिष्य जिस समय क्षमापना - दण्डक बोलता है, उस समय गुरु कहते हैं - "जं किंचि अपत्तियं परिपत्तियं अविणया सारिया वारिया चोइया पडिचोइया तस्स मिच्छामि दुक्ककड़", अर्थात् मेरे द्वारा भी प्रेरणा, प्रतिप्रेरणा एवं आपकी सारसंभाल में जो कुछ अप्रीतिकर हुआ हो, तो मेरा वह दुष्कृत मिथ्या हो । पुनः शिष्य जिस समय खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके पाक्षिक “सुख तप"इस प्रकार बोले, उस समय गुरु कहते हैं - " देवगुरु की कृपा है ।" जिस समय शिष्य खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके “भगवन् पक्ष एवं दिवस में जो अभक्ति-आशातना हुई हो " - इस प्रकार कहता है, तो उस समय गुरु कहते हैं - " पक्ष - दिवस में जो भी अप्रीतिकर कार्य सम्पादित हुआ हो, तो वह दुष्कृत मिथ्या हो । ( अप्रत्यउअ समाधान उपजाव्यउ तस्समिच्छामि दुक्कडं ।) इस प्रकार यतियों से ज्येष्ठ एवं कनिष्ट के अनुक्रम से एवं श्रावकों से क्षमायाचना करे एवं उन्हें क्षमा प्रदान करे । तत्पश्चात् शिष्य कहते हैं - " इच्छापूर्वक चौरासी लाख जीवयोनि में मैंने पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, देव, तिर्यंच, मनुष्य, नारकी, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्ता एवं अपर्याप्ता जीवों की विराधना की हो, तो तत्सम्बंधी मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो । जिन - प्रतिमा, पूजा के उपकरण, ज्ञान के उपकरण, गुरु, साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविकाओं की कोई विराधना की हो, तो तत्सम्बन्धी मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो । प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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