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आचारदिनकर (खण्ड-४)
239 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि - प्रकार ये तीन चैत्यवंदन होते हैं। चैत्यदर्शन के समय एवं भोजन के बाद चैत्यवंदन - इस प्रकार पाँच तथा दोनों समय प्रतिक्रमण करते समय - इस प्रकार गृहस्थों के भी सात चैत्यवंदन बताए गए हैं। चैत्यवंदन की विधि तीन प्रकार की बताई गई है। वह इस प्रकार है - "नमस्कार-पाठ द्वारा जघन्य तथा दो दंडक एवं स्तुति-युगल द्वारा मध्यम एवं पाँच दण्डक, चार स्तुति, स्तवन एवं प्रणिधानों द्वारा उत्कृष्ट चैत्यवंदन होता है।" नमस्कारपूर्वक परमात्मा के आगे परमेष्ठीमंत्र पढ़ना - यह जघन्य चैत्यवंदन है - इस प्रकार की विधि से किया जाने वाला चैत्यवंदन जघन्य-चैत्यवंदन है। दो दंडक और दो स्तुतियों द्वारा मध्यम चैत्यवंदन होता है। जैसे - परमात्मा के या स्थापनाचार्य के समक्ष जाकर जिनस्तव, शक्रस्तव, चैत्यस्तव, साहूवंदन, प्रस्तुत जिनस्तोत्रपाठ, जयवीयराय एवं गुरुवंदन - इस प्रकार की विधि से किया जाने वाला चैत्यवंदन मध्यम होता है, जिसकी व्याख्या इस प्रकार है -
___ व्याख्या - सर्वप्रथम अर्द्ध सिंहासन में बैठकर मुख पर मुखवस्त्रिका या वस्त्रांचल लगाकर तथा दोनों हाथों की अंजलि बनाकर इस प्रकार कहता है - "हे भगवन् ! इच्छापूर्वक आप मुझे चैत्यवंदन करने की अनुज्ञा दीजिए।' यहाँ जिन एक सौ सत्तर तीर्थंकरों को वन्दन किया है, वे सब मोहरहित हैं तथा देवताओं से पूजित हैं एवं उनके वर्ण भिन्न-भिन्न हैं। कोई श्रेष्ठ सुवर्ण समान पीत वर्ण के हैं, कोई शंख जैसे सफेद वर्ण वाले हैं, कोई प्रवाल जैसे लाल वर्ण वाले हैं, कोई नीलममणि जैसे नीलवर्ण है वाले और कोई मेघ जैसे श्याम वर्ण वाले हैं। इन पाँचों वर्षों में सब तीर्थंकरों के वर्ण आ जाते हैं - इन सबको मैं वन्दन करता हूँ। इस प्रकार आर्या छंद के राग में उक्त गाथा बोले। तत्पश्चात् शक्रस्तव का पाठ करे। फिर “जावंति चेइयाइं" गाथा बोले तथा उसके बाद खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके "जावंति केवि."- यह गाथा बोले। तत्पश्चात् “नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः"- यह कहकर प्रस्तुत जिनस्तोत्र का पाठ करे। उसके बाद “जयवीयराय" सूत्र बोले। तत्पश्चात् आचार्य, उपाध्याय, गुरु एवं साधु
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