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असुविधा लम्बे करने और करवट विधि है। चारणा करना र श्वास की
आचारदिनकर (खण्ड-४) 236 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि करवट से और मुर्गी की तरह पाँव रखकर सोता हूँ। सोने में असुविधा हो, तो भूमि का प्रमार्जन कर बाद में पाँव लम्बे करूं।।२।। यदि पैर लम्बे करने के बाद में संकुचित करना पड़े, तो घुटनों को पूंजकर संकुचित करूं और करवट बदलनी पड़े, तो शरीर का प्रमार्जन कर करवट बदलूं - यह इसकी विधि है। यदि कायचिन्ता के लिए उठना पड़े, तो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की विचारणा करनी और इतना करने पर भी यदि निद्रा न उड़े, तो हाथ से नाक दबाकर श्वास को रोकना और इस प्रकार निद्रा से सम्यक्तया जागकर, तब प्रकाशवाले द्वार के सामने देखकर, जाकर कायचिंता का निवारण करे। यह इसकी विधि है।।३।। इन तीन गाथाओं को पढ़कर हाथ-पैर संकोच कर तथा बाएं हाथ का तकिया बनाकर बाई करवट से सो जाए। पुनः यदि (रात्रि में) करवट बदलनी हो, तो शरीर एवं संस्तारक की प्रतिलेखना करे। (रात्रि में) शरीर की चिंता (मल-मूत्र का विसर्जन करने) हेतु उठे, तो शरीर-चिन्ता से निवृत्त होकर गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करे। पुनः एक बार “अणुजाणह परमगुरु." - इन तीन गाथाओं को बोले तथा पुनः सो जाए। लेटे हुए भी निद्रा न आए, तो शुभध्यान करे। तत्पश्चात् रात्रि के अन्तिम प्रहर में उठकर देह-चिन्ता से निवृत्त होए। तत्पश्चात् गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करके रात्रि में आए कुस्वप्न एवं दुःस्वप्न के प्रायश्चित्त तथा चित्त के विशोधन हेतु "मैं कायोत्सर्ग करता हूँ"- इस प्रकार कहकर कायोत्सर्ग करे तथा शक्रस्तव का पाठ करे। तत्पश्चात् मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके सामायिकदण्डक (पाठ) का उच्चारण करे तथा प्रतिक्रमण का समय होने तक स्वाध्याय करे। पुन शुभध्यानपूर्वक शेष रात्रि व्यतीत करे और प्रतिक्रमण का समय होने पर प्राभातिकप्रतिक्रमण करे। फिर पुनः पूर्ववत् सर्व प्राभातिक क्रिया करे। पौषध का समय पूर्ण होने पर श्रावक कहे - "हे भगवन् ! इच्छापूर्वक आप मुझे पौषध पूर्ण करने हेतु मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करने की अनुज्ञा दें।" अनुज्ञा प्राप्त होने पर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहे -" हे भगवन् ! इच्छापूर्वक पौषध पारने (पूर्ण करने) की अनुज्ञा दें।" दूसरी बार
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