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आचारदिनकर (खण्ड-४) 235 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि की प्रतिलेखना करके पहने हुए वस्त्रों की प्रतिलेखना करता है। तत्पश्चात् पौषधशाला की प्रमार्जना करके सफाई करे। फिर प्रतिलेखित स्थापनाचार्य को संस्थापित करे। तत्पश्चात् पुनः खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे। फिर पूर्व की भाँति स्वाध्याय करे। तत्पश्चात् खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहे -"हे भगवन् ! उपधि एवं स्थंडिलभूमि की प्रतिलेखना करने की अनुज्ञा दें। दूसरी बार खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहे - "हे भगवन् ! मैं उपधि एवं स्थण्डिलभूमि की प्रतिलेखना करता हूँ। फिर वस्त्र, कम्बल आदि की प्रतिलेखना करके पुनः शुभध्यान में स्थिर होता है। कालवेला के आने पर, अर्थात् प्रतिक्रमण का समय होने पर उच्चार-प्रस्रवण (मल-मूत्र का त्याग) करने हेतु चौबीस प्रकार की स्थण्डिलभूमि की प्रतिलेखना करता है। तत्पश्चात् उस दिन के अनुसार सांवत्सरिक, चातुर्मासिक, पाक्षिक या दैवसिक प्रतिक्रमण करता है। उसके बाद साधुओं से विशेष रूप से क्षमापना करता है। फिर स्वाध्यायपूर्वक रात्रि का प्रथम प्रहर व्यतीत करता है। तत्पश्चात् शरीर-चिन्ता, अर्थात् लघुनीति करके गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करता है। फिर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहे -“हे भगवन् ! रात्रि-संथारा करने की अनुज्ञा प्रदान करें।' दूसरी बार खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहे - "मैं रात्रि-संथारे में स्थिर होता हूँ।' इस प्रकार कहकर शक्रस्तव का पाठ करे। तत्पश्चात् संस्तारक एवं शरीर का प्रमार्जन करके, संस्तारक के जानु के ऊपर के भाग तक उत्तरपट्ट को मिलाकर भूमि पर स्थापित करे। फिर कहे - "अनुज्ञा दीजिए, अन्य सब प्रवृत्तियों का निषेध करता हूँ, क्षमाक्षमण को नमस्कार हो"- इस प्रकार कहकर संस्तारक के ऊपर बैठता है। वहाँ तीन बार नमस्कारमंत्र बोलकर, तीन बार चतुःशरण का पाठ बोलकर, निम्न तीन गाथाएँ बोलता है - "उत्तम गुणरत्नों से विभूषित देहवाले परम गुरुओं रात्रि का प्रथम प्रहर अच्छी तरह परिपूर्ण हुआ है, अतः रात्रि-संथारे में स्थिर होने की अनुज्ञा दीजिए।।१।। संथारे की विधि (हे भगवन् !) संथारे की अनुज्ञा दीजिए, हाथ का तकिया करके बाई
तीन गाथाच बोलकर, तीन के ऊपर बैठता
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