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आचारदिनकर (खण्ड-४) ___ 234 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि बनाया गया प्रासुक आहार ग्रहण करे, अथवा पौषधशाला में पूर्व निर्दिष्ट स्वजनों द्वारा लाया गया, अथवा भिक्षाटन द्वारा लाया गया प्रासुक आहार ग्रहण करे। भोजन करने के बाद गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करके, शक्रस्तव बोलकर तथा द्वादशावर्त्तवन्दन करके दिवसचरिम त्रिविध या चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान करता है। यदि पुन (श्रावक को) शरीर की चिन्ता हेतु बाहर जाना हो, तो दूसरी बार “भगवन् ! आवस्सही"- इस प्रकार कहकर साधु के समान ही उपयुक्त निर्जीव स्थण्डिलभूमि पर जाकर विधिपूर्वक उच्चार-प्रस्रवण (मल-मूत्र) का त्याग करे तथा पुनः उसी प्रकार विधिपूर्वक पौषधागार में आकर “निस्सीही "- इस प्रकार कहकर प्रवेश करे। तत्पश्चात् गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करके खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके इस प्रकार कहे - "हे भगवन् ! इच्छापूर्वक आप मुझे गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करने की अनुज्ञा प्रदान करें। आवश्यक होने से पूर्व-पश्चिम, उत्तर अथवा दक्षिण दिशा में दिशा का अवलोकन करके तथा स्थण्डिलभूमि के जो विभिन्न विकल्प हैं, तदनुसार उनका प्रमार्जन करके, मल-मूत्र आदि का विसर्जन करके, पुनः जाने के निषेधपूर्वक पौषधशाला में प्रवेश करता हूँ। इस प्रकार आने-जाने में पौषधव्रत के नियमों की खण्डना या विराधना हुई हो, तो तत्सम्बन्धी मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो। “तत्पश्चात् स्वाध्याय एवं शुभध्यान द्वारा प्रथम प्रहर तक दिन को व्यतीत करता है। प्रतिलेखना का समय होने पर खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहे -“हे भगवन्! प्रतिलेखना करने की अनुज्ञा प्रदान करे। दूसरी बार खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहता है - "मैं प्रतिलेखना करता हूँ। इस प्रकार कहकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे। तत्पश्चात् पुनः खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहे - “हे भगवन् ! पौषधशाला की प्रमार्जना करता हूँ। तत्पश्चात् मुखवस्त्रिका तथा पादपोंछन की प्रतिलेखना करे। पुनः खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहे -"हे भगवन् ! अंगप्रतिलेखना करने की अनुज्ञा प्रदान करे।' पुनः दूसरी बार खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहे - "मैं अंग की प्रतिलेखना करता हूँ।" आहार करने वाला, अर्थात् भक्तार्थी सर्वप्रथम स्थापनाचार्य
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