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आचारदिनकर (खण्ड- ४ )
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स्वाध्याय
बार
प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि प्रतिलेखना करता है । पुनः, गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करके खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहता है - "हे भगवन् ! करने की अनुज्ञा प्रदान करें ।" दूसरी खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहता है "मैं स्वाध्याय करता हूँ ।" तत्पश्चात् रात्रि के अन्तिम प्रहर में जिस समय नमस्कारसहित प्रत्याख्यान करते हैं, उसी समय अपनी शक्ति के अनुसार एकभक्त, निर्विकृति, आयम्बिल या उपवास का प्रत्याख्यान करता है । फिर परमेष्ठीमंत्र का जाप करता है, पुस्तक आदि का वाचन करता है अथवा साधुओं से आगमों का ( शास्त्रों का ) श्रवण करता है तत्पश्चात् प्रहर से कुछ कम (एक पाद कम ) समय व्यतीत होने पर खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके श्रावक कहता है - "हे भगवन् ! प्रतिलेखना करने की अनुज्ञा अनुज्ञा प्रदान करें ।" दूसरी बार खमासमणासूत्रपूर्वक कहे - " मैं प्रतिलेखना करता हूँ ।" तत्पश्चात् मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके सर्व वस्त्र, पात्रोपकरण आदि की प्रतिलेखना करे। फिर “हे भगवन् ! आवस्सही " - इस प्रकार कहकर तथा उपाश्रय से निकलकर चैत्य में जाकर देववन्दन करता है । तत्पश्चात् यदि श्रावक आहार करने का इच्छुक हो, तो ( लिए गए ) प्रत्याख्यान का समय पूर्ण होने पर कहता है - "हे भगवन् ! इच्छापूर्वक आप मुझे प्रत्याख्यान के पारण हेतु मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करने की अनुज्ञा प्रदान करें । " ( अनुज्ञा प्राप्त होने पर ) मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे, तत्पश्चात् खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहे - “जिनका समय पूर्ण हो गया है, ऐसे त्रिविधाहार अथवा चतुर्विधाहार के एक प्रहर के, अथवा दो प्रहर के, अथवा निर्विकृति के, अथवा आयम्बिल के, अथवा एकासन के, अथवा जलसहित उपवास के प्रत्याख्यान को मैं पूर्ण करता हूँ ।" तत्पश्चात् शक्रस्तव का पाठ करे तथा बीस या सोलह गाथाओं तक स्वाध्याय करे। फिर यथासंभव अन्न का अतिथिसंविभाग (दान) करे । मुख, हस्त एवं पाद आदि की प्रतिलेखना करके नमस्कारमंत्र पढ़कर राग एवं द्वेष से रहित होकर गृहस्थ के पात्र में प्रासुक आहार ग्रहण करे । पाँच समितियों से युत होकर स्वगृह में जाकर स्वयोग, अर्थात् स्वयं के लिए
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