________________
आचारदिनकर (खण्ड-४) 216 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
गिहत्थसंसट्टेणं - जो आहार गृहस्थ द्वारा विकृति से समस्पर्शित किया गया हो - ऐसा आहार लेने में साधु को कोई दोष नहीं लगता है।
__अखंडित सूत्रपाठ के लिए श्रावकों के प्रत्याख्यान में यह अपवाद (आकार) बोला जाता है।
उक्खित्तविवेगेणं - कदाचित् विकृति से रहित वस्तु के ऊपर विकृति रखी हुई हो, तो उस विकृति को उठाकर वह वस्तु देना उक्खित्त विवेक आकार कहलाता है। कहा भी गया है - "मक्खन, घी एवं तेल में तली वस्तु, दही, गुदा, घी, गुड़ आदि कठिन द्रव्य में नौ आगार हैं तथा प्रवाही विगय, जैसे-दूध, तेल आदि में आठ आगार हैं।' मक्खन तथा तेल एवं घी में बनाए गए पकवान - दोनों ही अद्रव तथा पिण्डरूप होते हैं तथा दही, पिशितं, अर्थात् गुदा, घृत एवं गुड़ - ये सब भी अद्रव होते हैं - यदि ये सब वस्तुएं आयम्बिल की वस्तु के ऊपर हों, तो उसे उतारकर दिए जाने पर उस वस्तु के ग्रहण करने में कोई दोष नहीं लगता है और वस्तु यदि सद्रव हो और उनके उतारकर दिए जाने पर अधिक मात्रा में विकृति से संस्पृष्ट हो, तो उस वस्तु का ग्रहण करने में विकृति का दोष लगता है। निर्विकृतिप्रत्याख्यान में नौ अपवाद होते हैं, असंस्पृष्ट द्रव्यों में “उत्क्षिप्तविवेक" अपवाद को छोड़कर शेष आठ अपवाद होते हैं।
परम अखंडित सूत्र होने से इसे इसी प्रकार बोला जाता है। अभक्तार्थ-उपवाससूत्र -
“उग्गए सूरे, अभत्तट्ठ पच्चक्खामि, चउव्विहं पि तिविहं पि आहारं-असणं पाणं खाइमं साइमं। अन्नत्थऽणाभोगेणं सहसागारेणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्व समाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि।" भावार्थ -
सूर्योदय से लेकर अभक्तार्थ उपवास ग्रहण करता हूँ। फलतः अशन, पान, खादिम, स्वादिम - चारों ही प्रकार के आहार का, अथवा पान के सिवाय अनाभोग त्रिविध आहार का सहसाकार, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सर्वसमाधिप्रत्ययाकार - इन पाँचों अपवादों (आकार) के सिवाय पूर्णतया त्याग करता हूँ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org