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आचारदिनकर (खण्ड-४)
214 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि प्रमुख, नगर के प्रमुख, विद्या गुण आदि में ज्येष्ठ तथा राजा के आदेश से मर्यादापूर्वक जो किया जाए, उसे महत्तरागार कहते हैं। एकासन-प्रत्याख्यानसूत्र -
इस प्रत्याख्यान में आठ अपवाद (आकार) होते हैं। एकासन-प्रत्याख्यान का सूत्र इस प्रकार है -
“एकासणं पच्चक्खामि दुविहं तिविहं चउव्विहंपि वा आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं । अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं सागारियागारेणं आंउटण पसारणेणं, गुरु अब्भुट्ठाणेणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि।" भावार्थ -
मैं एकासन-तप स्वीकार करता हूँ। फलतः अशन, खादिम और स्वादिम - इन तीन प्रकार के, अथवा अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम - इन चार प्रकार के आहारों का १. अनाभोग २. सहसाकार ३. सागारिकाकार ४. आकुंचन-प्रसारण ५. गुर्वभ्युत्थान ६. पारिष्ठापनिकाकार ७. महत्तराकार एवं ८. सर्वसमाधिप्रत्ययाकार - इन आठ अपवादों (आगारों) के सिवाय त्याग करता हूँ। विशिष्टार्थ -
सागारियागारेणं - जिसके घर में रह रहे हों, अथवा पड़ोसी, अथवा शय्यातर, उनकी प्रार्थनारूप जो अपवाद होता है, उसे सागारिकाकार कहते हैं।
आउंटणपसारणेणं - भोजन करते समय हाथ-पैर आदि अंगों का सिकोड़ना या फैलाना। इस पद में समाहार द्वन्द समास है।
गुरुऽब्भुट्ठाणेणं - गुरु के आने पर एकासन करते-करते आसन त्याग कर खड़े होना।
पारिट्ठावणियागारेणं - अन्नादि के परित्याग को पारिष्ठापनिका कहते हैं। उसका आकार-अनुरोध होने से भी प्रत्याख्यान का भंग नहीं होता है। आहारादि को परठ देने में बहुत दोषों की सम्भावना रहती है, उन दोषों के निवारण के लिए पुनः उस आहार का उपभोग कर लेने से प्रत्याख्यान का भंग नहीं होता।
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