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आचारदिनकर (खण्ड- ४)
213 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
प्रत्ययाकार - इन छहों (अपवादों) आकारों के सिवाय पूर्णतया त्याग
करता हूँ। विशिष्टार्थ -
पच्छन्नकाण
बादल अथवा आँधी के कारण सूर्य के ढक जाने से पौरुषी पूर्ण हो जाने की भ्रान्ति से आहार कर लेना ।
दिसामोहेणं - पूर्व- पश्चिम, उत्तर-दक्षिण आदि दिशा का ज्ञान न होने पर, अर्थात् पूर्व को पश्चिम समझकर पौरुषी न आने पर भी सूर्य के ऊँचा चढ़ जाने की भ्रान्ति से अशनादि का सेवन कर लेना ।
साहुवयणेणं "पौरुषी आ गई" - इस प्रकार किसी साधु भगवंत के कहने पर बिना पौरुषी आए ही पौरुषी पारण कर लेना । सव्वसमाहिवत्तियागारेणं सभी साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका एवं गण की समाधि बनी रहे इस प्रकार आदर-सम्मान का जो भाव है, उस आदरभाव के कारण अशनादि का सेवन करना । इस प्रकार इस पौरुषी-प्र - प्रत्याख्यानसूत्र में छः अपवाद (आहार)
हैं ।
पूर्वार्द्धसूत्र
इस सूत्र में सात आकार हैं । पूर्वार्द्ध प्रत्याख्यान का सूत्र इस
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प्रकार है
“ उग्गए सूरे पुरिमङ्कं पच्चक्खामि चउव्विहं पि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं महत्तरागारेणं सव्व समाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ।"
भावार्थ
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सूर्योदय से लेकर दिन के पूर्वार्द्ध तक, अर्थात् दो प्रहर तक चारों प्रकार के आहार अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम का अनाभोग, सहसाकार, प्रच्छन्नकाल, दिशामोह, साधुवचन, महत्तराकार और सर्वसमाधि प्रत्ययाकार इन सातों अपवादों (आगारों) के सिवाय पूर्णतया त्याग करता हूँ ।
विशिष्टार्थ -
महत्तरागारेणं गच्छ के मुख्य, अर्थात् आचार्य, संघ के
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