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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि से सचित्त पदार्थ पर रख देना, अथवा अचित्त वस्तु डाल देना २. अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु से ढंकना ३. न देने की बुद्धि से अपनी वस्तु को पराई तथा देने की बुद्धि से पराई वस्तु को अपनी वस्तु कहना ४. मत्सर आदि कषायपूर्वक दान देना एवं ५. समय बीत जाने पर भिक्षा आदि के लिए निमंत्रण करना इस प्रकार अतिथिसंविभाग सम्बन्धी पाँच अतिचारों में से जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी मैं निन्दा करता हूँ । ( बारहवें व्रत में संभावित अन्य अतिचारों की आलोचना ) " सुहिएसु अ दुहिएसु अ, जा मे अस्संजएसु अणुकंपा 1 रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ।। ३१ । । “ भावार्थ भावार्थ - १. ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों वाले ऐसे सुविहित साधुओं पर, २. व्याधि से पीड़ित, तपस्या आदि से खिन्न दुःखी साधुओं पर ३. असंयत साधुओं पर या अन्य मत के कुलिंगी - ऐसे असंयमी साधुओं पर या द्रव्यलिंगी साधुओं पर राग या द्वेषपूर्वक अनुकम्पा की हो, तो उसकी मैं निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ । ( सम्यक्त्व का भंग करने वाले अन्य अतिचारों की आलोचना ) “साहूसु संविभागो, न कओ तव चरण करण जुत्तेसु । संते फासु अदाणे, तं निंदे तं च गरिहामि ।। ३२ ।।" भावार्थ - निर्दोष अन्न-पानी आदि साधु को देने योग्य वस्तुएँ अपने पास उपस्थित होने पर भी; तपस्वी, चारित्रशील, क्रियापात्र साधु का योग होने पर भी मैंने प्रमादादि के कारण उसे दान न दिया हो, तो ऐसे दुष्कृत्य की मैं निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ । ( संलेखना ( अनशन ) व्रत के अतिचारों की आलोचना ) " इहलोए परलोए, जीविअ - मरणे अ आसंस-पओगे । पंचविहो अइआरो, मामज्झ हुज्ज मरणंते ।। ३३ ।। " 197 - संलेखना - व्रत के निम्न पाँच अतिचार हैं - १. इहलोकाशंसाप्रयोग, अर्थात् जीवितमहोत्सव आदि की आकांक्षा २. परलोकाशंसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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