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आचारदिनकर (खण्ड-४)
196 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि “आणवणे पेसवणे, सद्दे रूवे अ पुग्गलक्खेवे।
देसावगासिअम्मि बीए सिक्खावए निंदे ।।२८ ।।" भावार्थ -
देशावकासिक-व्रत नाम के दूसरे शिक्षाव्रत के विषय में लगे हुए अतिचारों की मैं निन्दा करता हूँ। इस व्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार हैं -
१. आनयन - नियमित सीमा के बाहर स्वयं न जाकर किसी अन्य से कोई वस्तु मंगाना या किसी को बुलाना। २. प्रेष्य-प्रयोग - नियत सीमा के बाहर कोई चीज भेजनी हो, तो व्रतभंग होने के भय से स्वयं न जाकर किसी अन्य द्वारा भेजना। ३. शब्दानुपात - नियमित क्षेत्र के बाहर रहे हुए किसी व्यक्ति को खांसी, खंखार आदि जोर से शब्द करके उसे अपने स्वरूप कार्य को बतलाना। रूपानुपात - नियमित क्षेत्र के बाहर से किसी को बुलाने की इच्छा हुई हो, तो व्रतभंग के भय से स्वयं न जाकर, हाथ, मुँह आदि अंग दिखाकर उस व्यक्ति को अपने आने की सूचना देना। पुद्गलक्षेप - नियमित क्षेत्र के बाहर ढेला, पत्थर आदि फेंककर अपना कार्य बताना।
(पौषधोपवास-व्रत के अतिचारों की आलोचना) “संथाररूच्चारविही-पमाय तह चेव भोयणाभोए
पोसह विहि विवरीए, तइए सिक्खावए निंदे ।।२६ ।।" भावार्थ -
पौषधोपवास-व्रत में कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी मैं निंदा करता हूँ। इस व्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार हैं - १. विधिपूर्वक संथारा न करना २. विधिपूर्वक प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना न करना ३.-४. लघुनीति एवं बड़ी नीति करने की जगह का प्रतिलेखना एवं प्रमार्जन न करना ५. पौषध में भोजन आदि की चिंता करना।
(अतिथिसंविभाग-व्रत के अतिचारों की आलोचना) “सच्चित्ते निक्खिवणे, पिहिणे ववएस मच्छरे चेव।
कालाइक्कम दाणे, चउत्थे सिक्खावए निदे।।३०।।"
भावार्थ -
साधु को देने योग्य अन्न-पानादि वस्तु को नहीं देने की बुद्धि
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