SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 198 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि प्रयोग, अर्थात् स्वर्ग एवं मोक्ष की वांछा रखना ३. जीविताशंसा-प्रयोग, अर्थात् जीने की इच्छा करना ४. मरणाशंसा-प्रयोग, अर्थात् मरने की इच्छा करना और ५. कामभोगाशंसा-प्रयोग, अर्थात् निदानपूर्वक राज्य, देवत्व की आकांक्षा करना - मृत्यु के अन्तिम समय तक मुझे न लगे। इस प्रकार की कामना की गई है। (मन, वचन एवं काया से लगे हुए अतिचारों की आलोचना) "काएण काइअस्स, पडिक्कमे वाइस्स वायाए। मणसा माणसिअस्स, सव्वस्स वयाइआरस्स।।३४ ।।" भावार्थ - __वध-बन्धादि अशुभ काययोग से लगे हुए व्रतातिचारों का तप तथा कायोत्सर्ग आदि काययोग से, सहसा-अभ्याख्यान आदि अशुभ वचनयोग से लगे हुए व्रतातिचारों का मिथ्या दुष्कृत आदि देने रूप, शुभ वचनयोग से तथा दुष्चिंतन आदि अशुभ मनःयोग से लगे हुए व्रतातिचारों का शुभध्यान आदि मनोयोग से प्रतिक्रमण करता हूँ। इस प्रकार सर्वव्रतों के अतिचारों का प्रतिक्रमण करें। (सभी अतिचारों की आलोचना) "वंदण-वय-सिक्खा गारवेसु, सण्णा-कसाय दंडेसु। गुत्तीसु अ समिईसु अ, जो अइआरो अ तं निंदे ।।३५ ।। भावार्थ - वन्दन, व्रत, शिक्षा, समिति और गुप्ति करने योग्य हैं। इनको न करने से जो अतिचार लगे हों तथा गौरव, संज्ञा, कषाय और दंड - ये छोड़ने योग्य हैं, इनको करने से जो अतिचार लगे हों, उनकी मैं निंदा करता हूँ। विशिष्टार्थ - वंदण - वन्दन दो प्रकार का है - १. चैत्यवंदन २. गुरुवन्दन। चैत्यवंदन के अनादर आदि अतिचार बताए गए हैं तथा गुरुवंदन के अनादर आदि तेंतीस अतिचार बताए गए हैं। वय - बारह व्रतों के प्रत्येक व्रत के पाँच-पाँच अतिचार बताए गए हैं एवं पन्द्रह कर्मादान बताए गए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy