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आचारदिनकर (खण्ड-४) ___ 177 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि भावार्थ -
__ पंचेन्द्रिय संवरण तथा पंचमहाव्रत के पालनरूप चित्त के दस प्रकार के समाधि स्थानों का एवं दसविध श्रमण धर्मों को अंगीकार करता हुआ साधु के गुणों से युक्त होकर मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।
ग्यारह के त्रिगुणों, अर्थात् तेंतीस आशातनाओं का सर्वतः त्याग करता हुआ साधुत्व के गुणों से युक्त होकर मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।२१-२२।।
अखण्डसूत्र-पाठ हेतु इस गाथा में विवज्जंतो शब्द का प्रयोग किया गया है। उपसंहार - "एवं तिदंड विरओ, तिगरण सुद्धो तिसल्लो निसल्लो।
तिविहेण पडिक्कतो, रक्खामि महव्वए पंच।।२३।।" भावार्थ -
इस प्रकार मन, वचन और काया के तीन दण्डों से विरत, कृत, कारित एवं अनुमोदितरूप तीन करणों से विशुद्ध, तीन शल्यों से रहित तथा मन, वचन, काया के त्रिविध योगों के सर्व अतिचार दोषों से निवृत्त होकर मैं अप्रमत्त रूप से पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।२३।।
महाव्रतोच्चार का उपसंहार, उसके प्रभाव का कीर्तन तथा जिनमुनि को नमस्कार करते हुए अब सूत्र का कीर्तन आरम्भ करते हुए कहते हैं -
“इच्चेइयं महव्वय उच्चारणं, कयं थिरत्तं, सल्लुद्धरणं, धिइबलं, ववसाओ, साहणट्ठो, पावनिवारणं, निकायणा, भावविसोही, पडागाहरणं, निज्जुहणाऽऽराहणा गुणाणं, संवरजोगो, पसत्थझाणो, वउत्तया जुत्तया य, नाणे, परमट्ठो उत्तमट्ठो, एस. खलु तित्थंकरेहिं, रइरागदोसमहणेहिं, देसिओ पवयणस्स सारो छज्जीव निकाय संजमं उवएसियं, तेल्लोक्कसक्कयं ठाणं अब्भुवगया।"
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