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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 176 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि "नवबंभचेर गुत्तो, दुनवविह बंभचेर परिसुद्धं । उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच।।१६।।" भावार्थ - नवब्रह्मचर्य गुप्तियों का तथा औदारिकमैथुन एवं वैक्रियमैथुन का मन, वचन, कायारूप तीन योगों के साथ गुणन करने से छ: विकल्प हुए। इन छ: का कृत, कारित एवं अनुमोदन - इन तीन करणों के साथ गुणा करने पर कुल अठारह प्रकार की ब्रह्मचर्य-शुद्धि को अंगीकार करता हुआ साधु के गुणों से युक्त होकर मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।१६।। . "उवघायं च दसविहं, अंसवरं तह य संकिलेसं च। परिवज्जतो गुत्तो, रक्खामि महब्बए पंच ।।२०।।" भावार्थ - ___ दसविध धर्म का उपघात करने वाले लोलुपत्व, असत्य, लोभ, मैथुन, असन्तोष, नास्तिकत्व, क्रोध, मान, माया एवं परद्रव्यहरणरूप - दस उपघातों का' तथा पाँचों इन्द्रिय एवं मन - ये छः एवं कषायचतुष्क - ऐसे दसविध असंवर का तथा पाँचों इन्द्रियों, राग-द्वेष एवं मन-वचन-काया - ऐसे तीन योग, इस प्रकार दस प्रकार के संक्लेशों का वर्जन करता हुआ तीन गुप्तियों से युक्त होकर मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।२०।। "दसचित्त समाहिठाणा दस चेव दसाउ समणधम्मं च। उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच।।२१।। आसायणं च सव्वं, तिगुणं एक्कारसं विवज्जतो। परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ।।२२।।" ' पाठान्तर से दसविध उपघात - उद्गमोपघात, उत्पादनोपघात, एषणोपघात, परिकर्मोपघात, परिहरणोपघात, ज्ञानोपघात, दर्शनोपघात, चारित्रोपघात, अप्रीतिकोपघात एवं संरक्षणोपघात का भी उल्लेख मिलता है। २-३ पाठान्तर से अन्य दसविध असंवरों का तथा दसविध संक्लेशों का भी उल्लेख मिलता है। * पाठान्तर से “दसचित्त समाहिठाणा" पाठ के स्थान पर "सच्च समाहिट्ठाणा" पाठ भी मिलता हैं, जिसका भावार्थ विद्वानों ने दस प्रकार के सत्य तथा दस प्रकार के समाधिस्थान किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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