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आचारदिनकर (खण्ड- ४)
भावार्थ
आठ मदस्थानों का एवं ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र, अन्तराय एवं आयुष्य - इन आठ कर्मों का तथा उनके नवीन बंध का त्याग करता हुआ गुप्तिवन्त होकर मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ ।। १६ ।।
"अट्ठ य पवयण माया, दिट्ठा अट्ठविह निट्ठियट्ठेहिं ।
175 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
"अट्ठ भयट्ठाणाइं', अट्ठ य कम्माई तेसिं बंधं च । परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ।। १६ ।। "
भावार्थ
भावार्थ
पाँच समिति एवं त्रिगुप्तिरूप अष्टप्रवचन माताओं को, जो कर्माष्टक से रहित जिनेश्वर भगवन्त द्वारा उपदिष्ट हैं, उनका पालन करता हुआ साधुत्व के गुणों से युक्त होकर मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ ।।१७।।
"नव विह दंसणावरणं, नवइ नियाणाइ अप्पसत्थाइ ।' परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ।। १८ ।। "
उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ।। १७ ।।"
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला एवं स्त्यानगृद्धिरूप नवविध दर्शनावरण का तथा हिंसा, वितथ, स्तेय, मैथुन, परपरिवाद, अवज्ञा, दुर्नय एवं कषाय इन नौ प्रकार के अप्रशस्त निदानों का परिवर्जन करता हुआ मैं गुप्तिवंत होकर पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ ।। १८ ।।
१
यहाँ ग्रन्थकार ने अट्ठ भयट्ठाणाई ऐसे पाठ का उल्लेख किया है, जो हमारी दृष्टि में अनुपयुक्त है, क्योंकि भयस्थानों का विवेचन तो पूर्व में ही हो चुका है, अतः इस पाठ के स्थान पर अट्ठ मयट्ठाणाई होना चाहिए, जिसकी पुष्टि अन्य अनेक ग्रन्थों से भी होती है, अतः यहाँ शुद्ध पाठ अट्ठमयट्ठाणाइं, अर्थात् आठ मदस्थानों का उल्लेख करना ही उपयुक्त होगा ।
२ पाठान्तर से " नवविह दसंणावरणं, नवइ नियाणाइ अप्पसत्थाइ " के स्थान पर "नवपावनियाणाई, संसारत्था य नव विहा जीवा" पाठ का उल्लेख भी मिलता है ।
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