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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 174 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि छविहमभितरयं, बझं पि य छव्विहं तवोकम्म उपसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच।।१३।।" भावार्थ - पृथ्वीकायादि षड्जीवनिकाय के वध का तथा हीलित वचन - किसी का अपमान करना, खिंसित वचन - किसी की निन्दा करना, पुरुष वचन - किसी को गाली आदि अपशब्द कहना, अलीक वचन - झूठ बोलना, गृहस्थ वचन - पिता, पुत्र आदि सांसारिक सम्बन्धों से युक्त भाषा बोलना, उपशान्त - भूले हुए कलह को फिर से जाग्रत करना - इन छ: प्रकार के अप्रशस्त वचनों का परिवर्जन करता हुआ गुप्तिवन्त होकर मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।१२।। प्रायश्चित्त, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, विनय, व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) एवं शुभध्यानरूप - इन छ: प्रकार के आभ्यंतर तपःकर्म का तथा अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश एवं संलीनतारूप - इन छ: प्रकार के बाह्य तपःकर्म का आचरण करता हुआ साधुत्व के गुणों से उपसम्पन्न होकर मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।१३।। “सत्त भय ठाणाई, सत्तविहं चेव नाणविभंग। परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महब्बए पंच।।१४।।" भावार्थ - इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्मात्भय, वेदनाभय, मरणभय एवं अपकीर्तिभय - इन सात भयस्थानों का परिवर्जन करता हुआ गुप्तिवन्त मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।१४।। __"पिंडेसण पाणेसण - उग्गहं सत्तिक्कया महज्झयणा। उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ।।१५।। भावार्थ - . सात पिण्डैषणा के नियम, सात पानैषणा के नियम, सात अवग्रह-याचना के नियम - ये तीन सप्तक और सात महाध्ययन - इन सबका पालन करते हुए साधुत्व-गुणों से युक्त होकर मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।१५।। नोट - मूलग्रन्थ में इसकी संस्कृत-छाया एवं व्याख्या अनुपलब्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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