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आचारदिनकर (खण्ड-४) ___173 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि चत्तारि य सुह सिज्जा, चउविहं संवरं समाहिज्जा।
उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच।।६।। भावार्थ -
चार दुःखदायी शय्याओं को, चार कषायों का परिवर्जन करता हुआ त्रिगुप्तियों से गुप्त होकर मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।८।।
चार सुखदायी शय्याओं का क्षमा, मार्दव, आर्जव एवं निर्लोभतारूप चार संवरों को, विनय, श्रुत, तप एवं आचाररूप चार समाधियों को प्राप्त करके साधुता के गुणों से युक्त होकर मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।६।। "पंचेव य कामगुणे, पंचेव य निण्हवे' महादोसे।
परिवज्जंतो गुत्तो रक्खामि महव्वए पंच।।१०।। पंचिंदिय संवरणं, तहेव पंचविहमेव सज्झायं ।
उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच।।११।।" भावार्थ -
शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शरूप पाँच काम-भोगों को, देव, गुरु, धर्म, क्रिया एवं सन्मार्ग के अपलापकरूप पाँच निण्हव महादोषों . को छोड़कर त्रिगुप्ति का धारक मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।१०।।
स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों का दमन करके तथा वाचना, पृच्छना, आम्नाय, आगम एवं बुद्धिगुणाष्टक - इन पाँच प्रकार के स्वाध्यायों को करते हुए साधुत्व के गुणों से उपसम्पन्न होकर मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।११।। "छज्जीवनिकायवहं, छप्पि य भासाउ अप्पसत्थाउ
परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ।।१२।।
' मूलग्रन्थ में निण्हवे शब्द दिया गया है, जिसकी व्याख्या ग्रन्थकार ने देव, गुरु, धर्म, क्रिया एवं सन्मार्ग के अपलापरूप निण्हव दोषों से की है। पाठान्तर से अण्हवे शब्द भी मिलता है, जिसकी व्याख्या विद्वानों ने प्राणातिपात, मृषावाद आदि पाँच महादोषों के उत्पादक आश्रवों के रूप में की है। २ मूलग्रन्थ में वाचना, प्रच्छना, आम्नाय, आगम एवं बुद्धि गुणाष्टक - ये पाँच प्रकार के स्वाध्याय बताए गए हैं। पाठान्तर से अन्य ग्रन्थों में वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुपेक्षा और
धर्मकथा - इन पाँच स्वाध्यायों का नामोल्लेख मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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