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________________ 168 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि आचारदिनकर (खण्ड-४) भावार्थ - हे भगवन् ! छठवें व्रत में समस्त प्रकार के रात्रिभोजन-विरमणव्रत के लिए उपस्थित हुआ हूँ। अब सभी व्रतों का एक साथ उच्चारण करते हुए कहते हैं - __ "इच्चेइयाइं पंच महव्वयाइं राईभोअण वेरमण छट्ठाई अत्तहिअट्ठाए उवसंपज्जित्ताणं विहरामि।" भावार्थ - इस प्रकार पूर्वोक्त रात्रिभोजन-विरमण छठवें व्रत के सहित पाँच महाव्रतों को अपने आत्महित के लिए सम्यक् प्रकार से अंगीकार करके मैं विचरण करूं या करता हूँ। अब प्रकारान्तर से महाव्रत की व्याख्या करते हैं - “अप्पसत्था य जे जोगा, परिणामा य दारूणा। ____ पाणाइवायस्स वेरमणे, एस वुत्ते अइकम्मे।।।१।। भावार्थ - द्रोह, पैशुन्य आदि अप्रशस्त मानसिक, वाचिक एवं कायिक-योग, अर्थात् व्यापारों की प्रवृत्ति और पीड़ादायक हिंसा के दुष्ट अध्यवसायों से प्राणातिपात-विरमणव्रत का अतिक्रम होकर अतिचार या दोष लगता है - ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है। “तिव्वरागा य जा भासा, तिव्व दोसा तहेव य मुसावायस्स वेरमणे, एस वुत्ते अइक्कमे ।।२।।" भावार्थ - अतिशय राग तथा उसी प्रकार अतिशय द्वेष वाली जो भाषा बोली जाती है, उससे मृषावाद-विरमणव्रत का अतिक्रम होता है - ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है। "उग्गहं च अजाइत्ता, अविदिण्णे य उग्गहे। ____ अदिन्नादाणस्स वेरमणे, एस वुत्ते अइक्कमे ।।३।।" भावार्थ - गुरु के अवग्रह की याचना किए बिना और उनकी आज्ञा के बिना गुरु के अवग्रह में रहना, अथवा अवग्रह के सम्बन्ध में गुरु द्वारा पूर्व में चाहे आज्ञा ले ली गई हो, किन्तु व्रतक्रिया आदि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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