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आचारदिनकर (खण्ड-४) 167 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं। अईअं निंदामि पडुप्पन्नं संवरेमि अणागयं पच्चक्खामि सव्वं राईभोअणं जावज्जीवाए अणिस्सिओहं नेव सयं राइभोअणं भुंज्जेजा, नेवन्नेहिं राईभोअणं भुंजाविज्जा राईभोअणं भुंजन्ते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा। तं जहा अरिहंतसक्खिअं सिद्धसक्खि साहूसक्खिअं देवसक्खिअं अप्पसक्खिअं एवं भवइ भिक्खू वा भिक्खूणी वा संजय विरय पडिहय पच्चक्खाय पावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा। एस खलु राईभोअणस्स वेरमणे।"
इस पाठ में प्रथम महाव्रत के स्थान पर छठवें रात्रिभोजन-विरमणव्रत सम्बन्धी जो-जो गाथाएँ दी गई हैं, उनका भावार्थ इस प्रकार है -
“राइभोअणं अँजिअं वा भुंजाविअं वा भुंजंतं वा परेहिं समणुन्नाओ तं निंदामि गरिहामि" भावार्थ -
स्वयं ने रात्रिभोजन किया हो, दूसरों को रात्रिभोजन कराया हो, अथवा रात्रिभोजन करते हुए दूसरे लोगों को अच्छा माना हो, तो उसकी मैं निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ।
"नेव सयं राईभोअणं भुजेज्जा, नेवन्नेहिं राईभोअणं भुंजाविज्जा, राईभोअणं भुंजते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा।" भावार्थ -
स्वयं रात्रिभोजन नहीं करूंगा, दूसरों से भी रात्रिभोजन नहीं करवाऊंगा एवं रात्रिभोजन करते हुए अन्यों की भी अनुमोदना नहीं करूंगा।
"एस खलु राईभोअणस्स वेरमणे" भावार्थ -
निश्चय से रात्रिभोजन-विरमण नाम का यह व्रत - "हिए सुहे ..........
......... विहरामि" इस मूल पाठ का अर्थ प्रथम महाव्रत में किए गए अनुसार ही
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"छठे भंते ! वए उवट्ठिओमि सव्वाओ राइभोअणाओ वेरमणं"
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