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________________ आचारदिनकर (खण्ड- ४) 169 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि अवसर पर गुरु के अवग्रह की पुनः याचना के बिना उसमें कार्य करने से अदत्तादान - विरमणव्रत का अतिक्रम होता है ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है । भावार्थ "सद्दा रूवा रसा गंधा- फासाणं पवियारणा । मेहुणस्स वेरमणे, एस कुत्ते अक्कमे || ४ || " - शब्द, रूप, रस, गंध एवं स्पर्श - इन इन्द्रियों के पाँचों विषयों का रागभावपूर्वक सेवन करने से मैथुनविरमण - व्रत का अतिक्रमण होता है - ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है । “इच्छा मुच्छा य गेही य, कंखा लोभे य दारुणे । परिग्गहस्स वेरमणे, एस वुत्ते अइक्कमे । । ५ । । " भावार्थ अप्राप्त पदार्थ की कामना करना, उसके प्रति अत्यन्त आसक्ति रखना, सर्व वस्तुओं के संग्रह करने की तथा परधन को ग्रहण करने की बुद्धि रखना एवं किसी वस्तु को ग्रहण करने का हठाग्रह रखने से परिग्रहविरमण - व्रत का अतिक्रम होता है ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है । करते हैं - " अइमत्ते य आहारे सूरे खित्तम्मि सकिए । भावार्थ अतिमात्रा में आहार करने से तथा सूर्य के उदित या अस्त होने के सम्बन्ध में शंका होने पर भी आहार करने से रात्रिभोजन-विरमणव्रत में अतिचार (दोष) लगता है - ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है 1 अब दूसरी बार पुनः निम्न प्रकार से महाव्रतों का उच्चारण राइभोअणस्स वेरमणे एस वुत्ते अइक्कमे । । ६ । । " Jain Education International "दंसण नाण चरित्ते अविराहित्ता ठिओ समण धम्मे, पढमं वयमणुरक्खे विरयामो पाणाइवायाओ । ७ ।। दंसण नाण चरित्ते, अविराहित्ता ठिओ समण धम्मे । बीयं वयमणुरक्खे, विरयामो मुसावायाओ ।। ८ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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