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आचारदिनकर (खण्ड-४) 155 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि आणुगामिए, पारगामिए' सव्वेसिं पाणाणं, सव्वेसिं भूयाणं, सव्वेसिं जीवाणं, सव्वेसिं सत्ताणं, अदुक्खणयाए, असोयणयाए, अजूरणयाए, अतिप्पणयाए, अपीडणयाए, अपरियावणयाए अणोद्दवणयाए, महत्थे, महागुणे, महाणुभावे महापुरिसाणुचिन्ने, परमरिसिदेसिए, पसत्थे तं दुक्खक्खयाए कम्मक्खयाए, मोक्खयाए', बोहिलाभाए संसारूत्तारणाए त्तिक? उवसंपज्जित्ताणं विहरामि।" भावार्थ -
यह प्राणातिपात विरमणव्रत निश्चय से हितकारी है, सुज्ञात है, तारने में समर्थ है, सम्पूर्ण रूप से पालन करने योग्य है, स्वयं के लिए आचरणीय है, दूसरों को प्रतिपादित करने योग्य है, इसलिए सर्वपंचेन्द्रिय प्राणियों को, सर्व एकेन्द्रिय जीवों को, नारकी, देव, मनुष्य एवं असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले नर, तिर्यचो को, सोपक्रम आयुष्य वाले नर, तिर्यच और विकलेन्द्रियों को दुःख नहीं देने से, सन्ताप नहीं उपजाने से, शरीर को जीर्ण नहीं बना देने से, अत्यधिक पीड़ा नहीं देने से, चारों ओर से शरीर को सन्ताप उत्पन्न नहीं करने से, त्रास या मरण-कष्टादि उपद्रव नहीं करने से- यह व्रत हितकारी, सुज्ञात, क्षेम, निःश्रेयस आदि का करने वाला है तथा यह प्राणातिपात-विरमण-व्रत महान् फल का दायक है, महान् गुणों का
आधाररूप है, भारी माहात्म्य वाला है, महापुरुषों ने इसका आचरण किया है, महर्षियों द्वारा प्ररूपित एवं अत्यन्त विशुद्ध-शुभ है, इसलिए दुःखों का नाश करने के लिए, कर्मों का क्षय करने के लिए, समकित की प्राप्ति के लिए और संसार-समुद्र को पार करने के लिए त्रिकरण-शुद्धिपूर्वक इस महाव्रत को अंगीकार करके विचरण करता हूँ।
“पढमे भंते ! महव्वए उवट्ठिओमि सव्वाओ पाणाइवायाओवेरमणं।"
' मूलग्रन्थ में 'पारगामिए' शब्द की संस्कृत छाया परानुगामी करके इसकी व्याख्या “दूसरों को बताने योग्य'"- इस प्रकार की है। पाठान्तर से इसका अर्थ संसार को पार कराने वाला मिलता है।
कम्मक्खयाए शब्द के पश्चात् पाठान्तर से मोक्खयाए शब्द भी मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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