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________________ 156 आचारदिनकर (खण्ड-४) प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि भावार्थ - - हे भगवन् ! पहले महाव्रत में सर्वप्रकार के प्राणातिपात से आज से निवृत्त होता हूँ। द्वितीय महाव्रत - "अहावरे दोच्चे भंते ! महव्वए मुसावायाओ वेरमणं सव्वं भंते! मुसावायं पच्चक्खामि से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा नेव सयं मुसं वएज्जा नेवन्नेहिं मुसं वायाविज्जा मुसं वयन्ते वि अन्ने न समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भन्ते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।" भावार्थ - हे भगवन् ! प्रथम महाव्रत के बाद दूसरे महाव्रत में मृषावाद से विरत होना है, इसलिए हे गुरुवर ! मैं समस्त मृषावाद का प्रत्याख्यान करता हूँ - उसका सर्वप्रकार से त्याग करता हूँ, उस महाव्रत का पालन किस प्रकार से होता है ? तो कहते हैं - क्रोध से, लोभ से, भय से, हास्य से मैं स्वयं असत्य नहीं बोलूंगा, दूसरे किसी से असत्य नहीं बुलवाऊंगा तथा असत्य बोलते हुए दूसरों को भी अच्छा नहीं मानूंगा। जीवनपर्यन्त मन-वचन-कायारूप तीन योग से असत्य भाषण नहीं करूं, न ही दूसरों से करवाऊं तथा असत्य बोलने वाले अन्य को भी अच्छा नहीं समझू - इन तीन करण से, हे भगवन्! उस मृषावाद सम्बन्धी पाप का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, अर्थात् उसकी आलोचना करता हूँ, निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ एवं उसके प्रति ममत्वबुद्धि का, अर्थात् आत्मीयभाव का त्याग करता हूँ। “से मुसावाए चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ। दव्वओणं मुसावाए सव्वदव्वेसु खित्तओणं मुसावाए लोए वा अलोए वा कालओणं मुसावाए दिआ वा राओ वा भावओणं मुसावाए रागेण वा दोसेण वा।" भावार्थ - वह मृषावाद द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा चार प्रकार का कहा गया है, जो इस प्रकार है - द्रव्याश्रयी मृषावाद-जीवाजीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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