________________
आचारदिनकर (खण्ड-४)
प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि नेवन्नेहिं पाणे अइवायाविज्जा' पाणे अइवायन्ते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा । तं जहा अरिहन्तसक्खिअं सिद्धसक्खिअं, साहूसक्खिअं, देवसक्खिअं, अप्पसक्खिअं । एवं भवइ भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय विरय पडिहय पच्चक्खाय पावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा “
भावार्थ -
भूतकाल में किए गए सर्व प्राणातिपात की मैं निन्दा करता हूँ, वर्तमानकाल में हुए प्राणातिपात का निवारण करता हूँ और भविष्यकाल में होने वाले प्राणातिपात का निषेध करता हूँ । आश्रय से रहित होकर मैं जीवनपर्यन्त स्वयं प्राणों का विनाश नहीं करूं, दूसरों के पास प्राणों का विनाश नहीं कराऊं, प्राणों का विनाश करते हुए दूसरों को भी अच्छा नहीं समझें, वह इस प्रमाण से अरिहंत की साक्षी से सिद्ध भगवंतों की साक्षी से, साधुओं की साक्षी से, अधिष्ठायक आदि देवों की साक्षी से ( कुछ लोग आत्मसाक्षी से इस प्रकार भी कहते हैं ) प्रत्याख्यान लेता हूँ। इस प्रकार साधु अथवा साध्वी, दिवस में या रात्रि में अकेले हों अथवा परिषद् में हों, स्वप्नावस्था में हों अथवा जागृतावस्था में हों, निरन्तर संयमवन्त, विरतिवन्त तथा घातिकर्मरूप पापकर्म का नाश करने वाले होते हैं ।
-
7
154
विशेष यहाँ अर्हत्, सिद्ध, साधु, अधिष्ठायकदेव एवं आत्मसाक्षी से जिस कार्य का निषेध किया है, उन कार्यों को नहीं करने के अर्थ में अरिहंत सक्खिअं आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है । केवल एवं परम् अवधिज्ञानी आदि को सर्वप्रत्यक्ष होने से इस प्रकार का कथन किया गया है।
“एस खलु पाणाइवायस्स वेरमणे, हिए सुहे खमे निस्सेसिए,
१
मूलग्रन्थ में “घाणेवणेहिं पाणे अइवाया विद्या" पाठ मिलता है, जो हमारी दृष्टि से उचित नहीं है ।
२
मूलग्रन्थ में सुहे शब्द की संस्कृत छाया श्रुतं की है, पाठान्तर से सुख शब्द भी मिलता है।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International