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आचारदिनकर (खण्ड-४)
150 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि अर्थ त्याग करना जानना चाहिए) - इस प्रकार बताकर, अब प्रथम व्रत के उच्चारण के सम्बन्ध में बताते हैं -
“तत्थ खलु पढमे भंते ! महव्वए पाणाइवायाओ वेरमणं सव्वं भन्ते ! पाणाइवायं पच्चक्खामि, से सुहुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा नेवसयं पाणे अइवाएज्जा नेवन्नेहिं पाणे अइवायाविज्जा, पाणे अइवायंते वि अन्ने न समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं न करेमि, न कारवेमि, करन्तं पि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भन्ते पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि।" भावार्थ -
उसमें निश्चय से हे भगवन् ! प्रथम महाव्रत में प्राणातिपात जीवों की हिंसा से विरत होना प्रभु ने फरमाया है, अतः हे गुरुवर ! मैं सूक्ष्मजीव, बादरजीव, त्रसजीव, पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के स्थावर जीव - इन चारों प्रकार के जीवों की स्वयं हिंसा नहीं करना, न दूसरों द्वारा जीवों की हिंसा कराना तथा जीवों की हिंसा करते हुए दूसरों को भी अच्छा नहीं समझना, उनकी अनुमोदना नहीं करना - जीवनपर्यन्त कृत, कारित एवं अनुमोदित रूप त्रिविध हिंसा को मन, वचन एवं काया रूप त्रिविध योग से न तो स्वयं करूं, न दूसरों से करवाऊं और न ही करते हुए दूसरों को अच्छा समझू। हे प्रभो ! भूतकाल में की गई उस हिंसा की प्रतिक्रमणरूप आलोचना करता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ एवं उसके प्रति ममत्वबुद्धि का, आत्मीय-भाव का त्याग करता हूँ। विशिष्टार्थ -
भंते - गुरु के आगे प्रतिक्रमण करने के लिए भंते शब्द पूज्य का संबोधन है।
विरमण - विरमण का तात्पर्य “सम्पूर्ण निवृत्ति" है। सर्वत्र इस शब्द की यही व्याख्या करें।
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