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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) ____146 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि परिनिव्वायंति - परम सुख को प्राप्त करते हैं। सद्दहामि - बहुमानपूर्वक चाहता हूँ। पत्तिआमि - विश्वास रखता हूँ। रोएमि - अन्तःकरण में उसके प्रति रुचि रखता हूँ। पालेमि - आचरण द्वारा पालन करता हूँ। अनुपालेमि - पुन-पुनः उसकी आवृत्ति करता हूँ, अर्थात् दोहराता हूँ। असंयमंपरिआणामि - अनिन्द्रिय-निग्रहरूप असंयम को जानता हूँ एवं उसका त्याग करता हूँ। संयम उपसंपज्जामि - इन्द्रियों के निग्रहरूप संयम को स्वीकार करता हूँ। परिआणामि एवं उपसंपज्जामि की व्याख्या सर्वत्र एक जैसी ही है। अकल्प - यति के आचार के विरूद्ध अकल्प को। कल्पं - यति के आचारानुसार कल्प को। अतत्त्वं - बाह्य तत्त्वों को। तत्त्वं - सप्त पदार्थरूप तत्त्व को। अमग्गं - मिथ्यात्वरूप आचार को। मग्गं - सदाचाररूप मार्ग को। अबोहिं - बोधि-बीज से रहित, अर्थात् अबोध को। बोहिं - बोधि-बीजरूप बोध को। अबंभं - ब्रह्मचर्य से रहित अब्रह्म को। बंभं - मैथुन क्रिया से रहित ब्रह्मचर्य को। यहाँ जो स्मृति में है, जो स्मृति में नहीं, जिसका प्रतिक्रमण किया है और जिसका प्रतिक्रमण नहीं किया है, उसका पुनः प्रतिक्रमण करने का कथन मोहादि की विशुद्धि के लिए किया गया है। समणोऽहं - असंयम प्रतिक्रमण से निष्फल होता है। संयम में निष्ठित, मैं श्रमण हूँ। . ____ अनियाणे - अनिदान हूँ, अर्थात् इहलोक-परलोक सम्बन्धी फल की आकांक्षा से रहित हूँ। दिट्ठि संपन्नो - दृष्टिसम्पन्न हूँ, अर्थात् तत्त्वालोक से युक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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