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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 147 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि । इस प्रकार संयम में लगे अतिचारों का प्रतिक्रमण करते हैं तथा सर्वपापों को निरस्त करने हेतु यतियों को (श्रमणों को) नमस्कार करते हैं। अड्डाइज्जेसुं दीवसमुद्देसु - जम्बुद्वीप, घातकी खण्ड, अर्द्धपुष्करद्वीप तथा लवण एवं कालोदधि समुद्र - यह अढ़ाई द्वीप समुद्र - परिमित मानव क्षेत्र है। पन्नरससुकम्मभूमीसु - पाँच भरत, पाँच ऐरावत एवं महाविदेह में कुरू को छोड़कर पाँच - ये पन्द्रह कर्मभूमियाँ कही गई हैं। समुद्देसु - समुद्र शब्द का ग्रहण अन्तर्वीप में स्थित मुनियों के नमस्कार करने के लिए किया गया है। रयहरण गुच्छ ..... अक्खोहा चरित्त - इस कथन का तात्पर्य जिनकल्प से है। अब आत्मशुद्धि करके प्रतिक्रमण के अन्त में मैं सर्वपापों का हरण करने वाले जिनेश्वर परमात्मा को नमस्कार करता हूँ। “खामेमि सव्वेजीवे सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु वेरं मझं न केणइ।। एवमहं आलोइय निंदिअ गरहिअ दुगंछिअं सम्म तिविहेण पडिक्कन्तो वन्दामि जिणे चउव्वीसं।।" भावार्थ - मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ और वे सब जीव भी मुझे क्षमा करें। मेरी सब जीवों के साथ पूर्ण मित्रता है, किसी के साथ भी मेरा वैर-विरोध नहीं है। इस प्रकार मैं सम्यक् आलोचना, निंदा, गर्दा और जुगुप्सा द्वारा तीन प्रकार से, अर्थात् मन, वचन एवं काया से प्रतिक्रमण कर पापों से निवृत्त होकर चौबीस तीर्थकर देवों को वन्दना करता हूँ। विशिष्टार्थ - आलोइय - सर्व अतिचारों की आलोचना करके। तिविहेण - मन-वचन एवं काया के योग से। निंदिय, गरहिय, दुगंछिओ - ये सब आलोचना के ही पर्यायवाची शब्द हैं, किन्तु अत्यन्त (तीव्र भाव से) प्रतिक्रमण करने के लिए इनका पुनरावर्तन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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