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आचारदिनकर (खण्ड-४) 145 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
मैं श्रमण हूँ, संयमी हूँ, सावध व्यापारों से एवं संसार से निवृत्त हूँ, पापकों को प्रतिहत करने वाला हूँ एवं पापकर्मों का प्रत्याख्यान करने वाला हूँ; शल्य से, अर्थात् आसक्ति से रहित हूँ, सम्यग्दर्शन से युक्त हूँ, मायासहित मृषावाद का परिहार करने वाला
ढाई द्वीप और दो समुद्रों के परिमाण वाले मानव क्षेत्र में, अर्थात् पन्द्रह कर्मभूमियों में भी रजोहरण, गुच्छक एवं पात्र के धारण करने वाले तथा पाँच महाव्रत, अठारह हजार शील के धारण करने वाले एवं अक्षत आचार के पालक त्यागी साधु हैं, उन सबको सिर से, मन से एवं मस्तक से वन्दना करता हूँ। विशिष्टार्थ -
नेआउं - स्वामी होने से तथा समर्थवान् होने से मोक्ष में ले
जाने वाला है। गं-मुत्तिमग्ग-निजामार्ग आदि पर्यायात ही है।
सिद्धिमग्गं-मुत्तिमग्गं-निज्जाणमग्गं-निव्वाणमग्गं - सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्याणमार्ग एवं निर्वाणमार्ग आदि पर्यायवाची शब्द हैं, अतः एक की व्याख्या में ही दूसरों की व्याख्या भी समाहित ही है।
सिद्धि - सर्वहितार्थ की प्राप्ति करने को सिद्धि-ऐसा कहा गया है। मुत्ति - सर्व दोषों से मुक्त होने के कारण, उसे मुक्ति भी कहा जाता हैं। निव्वाण - सर्वसुखों की प्राप्ति होने से निव्वाण कहा गया है। निज्जाण - संसार-सागर से निर्गमन करने के कारण निर्याण कहा गया है। मग्गं, अर्थात् मार्ग। यहां मार्ग शब्द से आगम का भी ग्रहण किया गया है।
अविसंधि - द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से अव्यवच्छिन्न है, सदा शाश्वत है।
सव्वदुक्खप्पहीणमग्ग - सर्व दुःखों का अन्त करने वाला मार्ग। यहाँ मार्ग का आशय जिनोक्त तत्त्व, अर्थात् आगम से है।
इत्थ - इससे, अर्थात् मोक्षमार्ग के आचरण से। सिझंति - अणिमा आदि सिद्धियों को प्राप्त करते हैं। बुझंति - कैवल्य (बोध) को प्राप्त करते हैं। मुच्चंति - आठों कर्मों से मुक्त होते हैं।
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