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आचारदिनकर ( खण्ड - ४ )
आयरियाणं आसायणाए
तेंतीस आशातना करना ।
तेंतीस आशातना करना ।
करना ।
उवज्झायाणं आसायणाए के समान ही उपाध्याय की भी
गुरु
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साहूणं आसायणाए - साधुओं की निंदा करना । साहूणीणं आसायणाए साध्वियों की निंदा करना ।
सावयाणं आसायणाए - सावियाणं आसायणाए श्रावक एवं श्राविकाओं की निन्दा या तिरस्कार करना ।
देवी-देवताओं द्वारा
देवाणं आसायणाए - देवीणं आसायणाए अधिकृत भूमि एवं वस्तु का ग्रहण उनकी अनुज्ञा के बिना करना । इहलोगस्स आसायणाए - परलोगस्स आसायणाए - इहलोक एवं परलोक के सम्बन्ध में असत्य प्ररूपणा करना । केवलीणं आसायणाए केवलियों का अस्तित्व स्वीकार नहीं करना, अर्थात् उनके नास्तित्व का कथन करना ।
केवलिपन्नतस्स धम्मस्स आसायणाए केवली द्वारा प्ररूपित जिनधर्म की आशातना करना ।
सव्वपाणभूयजीवसत्ताणं आसायणाए - सर्व प्राणी, भूत, सत्त्व आदि को पीड़ा पहुँचाना तथा उनके सम्बन्ध में वितथ प्ररूपणा करना । यहाँ द्वीन्द्रिय आदि जीवों को प्राणी तथा पृथ्वीकाय आदि जीवों को भूत कहा गया है । समस्त संसार के प्राणियों के लिए तथा संसारी एवं मुक्त - - ऐसे सब अनन्तानन्त जीवों के लिए 'सत्त्व ' शब्द का व्यवहार होता है ।
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सदेवमणुयासुरस्सलोगस्स आसायणाए देव, मनुष्य एवं असुरलोक की निन्दा करना । यहाँ देवलोक का तात्पर्य ऊर्ध्वलोक से है । मनुष्यलोक का तात्पर्य मध्यलोक से एवं असुरलोक का तात्पर्य पाताललोक से है ।
कालस्स आसायणाए काल के अस्तित्व को स्वीकार नहीं
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
गुरु के समान ही आचार्य की
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सुअस्स आसायणाए श्रुत की वितथ प्ररूपणा करना । घोसहीनं - सूत्रादि को उदात्त स्वर में न बोलना।
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