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आचारदिनकर (खण्ड-४) _143 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
जोगहीन - योगोद्वहन के बिना सूत्रादि पढ़ना।
असज्झाइए - अस्वाध्यायकाल में, अर्थात् रक्त आदि से वस्त्र वगैरह संसक्त होने पर तथा योगोद्वहन में स्वाध्याय हेतु जिस काल का वर्जन किया गया है, उस काल में स्वाध्याय करना।
"नमो चउवीसाए तित्थगराणं उसभादिमहावीरपज्जवसाणाणं। इणमेव निग्गंथं पावयणं, सच्चं, अणुत्तरं, केवलियं, पडिपुण्णं, नेआउयं, संसुद्धं, सल्लगत्त, सिद्धिमग्गं, मुत्तिमग्गं, निज्जाणमग्गं, निव्वाणमग्गं, अवितहमविसंधिं, सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं। इत्थं ठिआ जीवा सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिनिव्वायंति, सव्वदुक्खाणमंतं करंति। तं धम्म सद्दहामि, पत्तिआमि, रोएमि, फासेमि, पालेमि, अणुपालेमि। तं धम्म सद्दहतो, पत्तिअंतो, रोअंतो, फासंतो, पालंतो, अणुपालंतो। तस्स धम्मस्स अब्भुट्ठिओमि आराहणाए, विरओमि विराहणाए। असंजमं परिआणामि, संजमं उवसंपज्जामि। अबंभं परिआणामि, बंभं उवसंपज्जामि। अकप्पं परिआणामि, कप्पं उवसंपज्जामि। अन्नाणं परिआणामि, नाणं उवसंपज्जामि। अकिरियं परिआणामि, किरियं उवसंपज्जामि। मिच्छत्तं परिआणामि, सम्मत्तं उवसंपज्जामि। अबोहिं परिआणामि, बोहिं उवसंपज्जामि। अमग्गं परिआणामि, मग्गं उवसंपज्जामि। जं संभरामि, जं च न संभरामि, जं पडिक्कमामि, जं च न पडिक्कमामि, तस्स सव्वस्स देवसियस्य अइआरस्स पडिक्कमामि। समणोऽहं संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मो, अनियाणो, दिट्ठिसंपन्नो, मायामोसविवज्जिओ। अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु। जावंत के वि साहू, रयहरणगुच्छपडिग्गहधारा। पंचमहव्वयधारा अड्ढारसहस्ससीलंगधारा। अक्खयायारचरित्ता, ते सब्वे सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि।।" भावार्थ -
। भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकर देवों को मैं नमस्कार करता हूँ। यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है, सर्वोत्तम है, अद्वितीय है, अथवा केवल ज्ञानियों से प्ररूपित है, मोक्षप्रापक गुणों से परिपूर्ण है, मोक्ष पहुँचाने वाला है, पूर्ण शुद्ध, अर्थात् सर्वथा निष्कलंक है, माया आदि शल्यों को नष्ट करने वाला
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