________________
आचारदिनकर (खण्ड-४)
२०.
२२.
प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि एवं सत्य की पवित्रता रखना १२. सम्यक्त्व - शुद्धि १३. प्रसन्नचित्तता १४. आचार- पालन में माया नहीं करना १५. विनय पालन करना १६. धैर्य रखना १७. सांसारिक भोगों से भय अथवा मोक्षाभिलाषा होना १८. मायाचार न करना १६. पापाश्रव को रोकना सद्नुष्ठान में निरत रहना २१. आत्मदोषों की शुद्धि करना सर्व काम भोगों से विरक्ति २३. मूलगुणों का शुद्ध पालन करना २४. उत्तरगुणों का शुद्ध पालन करना २५. शरीर के प्रति ममता न रखना २६. प्रमाद न करना २७. प्रतिक्षण संयम - यात्रा में सावधान रहना २८. धर्म - शुक्लध्यान- परायण होना २६. मरणान्तिक वेदना होने पर भी अधीर न होना । ३०. परिग्रह-परिज्ञा ३१. कृत दोषों का प्रायश्चित्त करना एवं ३२. मरणपर्यन्त ज्ञान की आराधना करना इन बत्तीस योगों का पालन नहीं करना अतिचाररूप है, जिसका प्रतिक्रमण किया जाता है
1
त्तित्तीसाए आसायणाए गुरु की तेंतीस आशातनाएँ की हों । आशातना शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, आ + शातना । सम्यग्दर्शन आदि आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति को आय कहते हैं और शातना का अर्थ है - खण्डन । देव, गुरु, शास्त्र आदि का अपमान करने से सम्यक् दर्शन आदि गुणों की शातना - खण्डना होती है ।
वन्दन - आवश्यक में गुरु की जो तेंतीस आशातनाएँ बताई गईं हैं, यहाँ पुनः उन्हीं का कथन किया गया । ( अतः गुरु की तेंतीस आशातनाओं हेतु वन्दन- आवश्यक देखें।)
यहाँ अरिहंतादि की तेंतीस आशातनाओं का निरूपण करके उनका प्रतिक्रमण किया गया है । वे इस प्रकार हैं अरिहंताणं आसायणाए परमात्मा की आशातना, अर्थात् परमात्मा के स्वरूप के विरूद्ध मन में संकल्प - विकल्प करना । सिद्धाणं आसायणाए सिद्धों की आशातना, अर्थात् कोई सिद्ध नहीं होता है, जब शरीर ही नहीं रहा, तो फिर अनन्त सुख कैसे मिल सकता है, इत्यादि कथनों से सिद्ध के नास्तित्व का कथन
करना ।
Jain Education International
-
141
-
-
For Private & Personal Use Only
-
www.jainelibrary.org