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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 135 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि बताए गए हैं। असंयमे शब्द में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग सर्व अतिचारों के कथन हेतु किया गया है। अट्ठारसविहे अबम्भे - अब्रह्मचर्य के अठारह स्थान हैं। देव, अर्थात् वैक्रियशरीर सम्बन्धी भोगों का मन, वचन एवं काया से न तो स्वयं सेवन करें, न दूसरों से सेवन कराएं तथा न ऐसा करने वाले को अच्छा जानें - इस प्रकार नौ भेद वैक्रियशरीर सम्बन्धी होते हैं। मनुष्य एवं तिर्यंच, अर्थात् औदारिक-शरीर के भोगों के त्याग के सम्बन्ध में भी इसी तरह नौ भेद समझ लेना चाहिए - इस प्रकार असंयम के कुल अठारह भेद होते हैं। इनके आचरण से जो अतिचार लगते हैं, उन्हें असंयमस्थान कहते हैं। एगुणवीसाएनायज्झाणेहिं - प्रस्तुत पाठ में ज्ञाताधर्मकथा के निम्न उन्नीस अध्ययनों का कथन किया गया है। उनमें उसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अन्य अध्ययनों का भी समावेश मान लेना चाहिए। १. उत्क्षिप्त, अर्थात् मेघकुमार २. संघाट ३. अण्ड ४. कूर्म ५. शैलिक ६. तुम्ब ७. रोहिणी ८. मल्ली ६. माकन्दी .. १०. चन्द्रमा ११. दावदव १२. उदक १३. मण्डूक १४. तेतलि . १५. नन्दीफल १६. अमरकंका १७. आकीर्णक १८. सुसमादारिका एवं १६. पुण्डरीक। बीसाए असमाहिट्ठाणेहिं - असमाधि के निम्न बीस स्थान हैं - १. जल्दी-जल्दी चलना २. बिना प्रमार्जन किए चलना ३. सम्यक् प्रकार से प्रमार्जन न करना ४. अमर्यादित शय्या और आसन रखना ५. गुरुजनों का अपमान करना ६. स्थविरों की अवहेलना करना ७. जीवों के घात का चिन्तन करना ८. क्षण-क्षण में क्रोध करना ६. लम्बे समय (चिरकाल) तक क्रोध रखना १०. परोक्ष में किसी का अवर्णवाद करना ११. प्रत्यक्ष में किसी को चोर आदि कहना १२. नित्य नए कलह करना १३. अकाल में स्वाध्याय करना १४. सचित्त रजसहित हाथ में भिक्षा ग्रहण करना १५. प्रहर रात बीतने के बाद जोर से बोलना १६. आक्रोश आदि रूप कलह करना १७. गच्छ आदि में फूट डालना १८. अधिक मात्रा में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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