________________
आचारदिनकर (खण्ड-४)
124 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि (अनन्तानुबंधी आदि कषायों की विस्तृत व्याख्या आगमों से जाने)
“पडिक्कमामि चउहिं सन्नाहिं-आहार-सन्नाए, भय-सन्नाए, मेहुण-सन्नाए, परिग्गह-सन्नाए।" भावार्थ -
आहार-भय-मैथुन एवं परिग्रह- इन चार प्रकार की संज्ञाओं द्वारा जो भी अतिचार लगा हो, उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। विशिष्टार्थ -
सन्नाहिं - आत्मा द्वारा वस्तु की आकांक्षा को संज्ञा कहते हैं।
आहारसन्नाए - षड्रसों से युक्त चतुर्विध आहार की आकांक्षा करने को आहार-संज्ञा कहते हैं।
भयसन्नाए - सप्त भयों से भयभीत होने को भयसंज्ञा कहते
हैं।
मेहुणसन्नाए - स्त्री के साथ संभोग आदि करने की इच्छा को मैथुनसंज्ञा कहते हैं।
____ परिग्गहसन्नाए - वस्तुओं के प्रति ममत्वभाव रखने को परिग्रहसंज्ञा कहते हैं।
____ “पडिक्कमामि चउहिं विकहाहि-इत्थी कहाए, भक्त कहाए, देस-कहाए, राय-कहाए" भावार्थ -
स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा एवं राजकथा - इन चारों विकथाओं द्वारा जो भी अतिचार लगा हो, उसका मैं प्रतिक्रमण करता
विशिष्टार्थ -
विकहाहिं - तथ्यों के विरूद्ध, जनसाधारण को अपवादमार्ग में प्रेरित करने वाली, दूसरों के प्रति अपराध करने की प्रेरणा देने वाली तथा किसी कार्य में विक्षेप डालने वाली कथा विकथा कहलाती है।
इत्थीकहा - अमुक देश और अमुक जाति की अमुक स्त्री सुन्दर है आदि स्त्री सम्बन्धी गुणों का कथन करना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org