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आचारदिनकर (खण्ड-४)
विशिष्टार्थ -
विराहणाहिं सावद्य आदि असंयम के भेदों द्वारा कर्मबन्ध करने वाली क्रिया को विराधना कहते हैं ।
नाणविराहणा ज्ञानी की निन्दा करना, गुरु आदि का अपलाप करना, ज्ञान की उपेक्षा करना, दूसरे के अध्ययन में अन्तराय डालना, ऐसे कार्य करने वाले व्यक्ति ज्ञान का विसंवाद करने वाले, अथवा ज्ञान के विराधक कहे जाते हैं । ( इसका विस्तृत विवेचन आगमों से जानें।)
दंसणविराहणाए - शंका आदि पाँच अतिचारों से सम्यक्त्व का छेदन करना ।
चारित्रविराहणाए - सर्वविरतिरूप चारित्र का खण्डन करना । "पडिक्कमामि चउहिं कसाएहिं - कोह कसाएणं, माणकसाएणं, मायाकसाएणं, लोभकसाएणं ।"
भावार्थ -
क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों द्वारा होने वाले अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ।
विशिष्टार्थ -
123 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
कसाएहिं
कषाय शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है। कष + आय । कष का अर्थ है- जो आत्मा को निरन्तर बांधता है। आय का अर्थ है - लाभ, अर्थात् प्राप्त होना, अर्थात् जो आत्मा को निरंतर बांधता है और जिससे संसार की प्राप्ति होती है, उसे कषाय कहते
हैं ।
हैं।
कोह कसाएणं दूसरे के प्रति अनिष्ट विचार तथा रौद्र परिणाम रखने को क्रोध - कषाय कहते हैं ।
मानकसा अत्यन्त अहंकार करने को मानकषाय कहते
लोभकसाएणं लोभकषाय कहते हैं ।
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मायाकसाएणं - दूसरों को ठगने को मायाकषाय कहते हैं । अत्यन्त तृष्णा एवं मूर्च्छाभाव रखने को
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