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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 122 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि मायासल्लेहिं - शुभ-अशुभ कर्मों द्वारा कपट करने से या विशेष रूप से मक्कारी करने से शल्य की भाँति जो माया है, उसे मायाशल्य कहते हैं। नियाणसल्लेहिं - सभी बन्धनों के हेतुभूत, मन, वचन एवं काया द्वारा की जाने वाली चेष्टा तथा तप आदि सुकृतों द्वारा स्वर्ग, राज्य, मोक्ष आदि की आकांक्षा करना निदानशल्य है। मिथ्या दंसण सल्लेहिं - अतत्त्व में तत्त्व की मिथ्या श्रद्धा रखने रूप मिथ्यात्व, जो पाँच प्रकार का है, मिथ्यादर्शनशल्य है। “पडिक्कमामि तिहिं गारवेहि-इड्ढी गारवेणं, रस-गारवेणं, सायागारवेणं। भावार्थ - ___ तीन प्रकार के गौरव से, अर्थात् ऋद्धि के गौरव, रस के गौरव एवं शाता के गौरव से लगने वाले दोषों का मैं प्रतिक्रमण करता विशिष्टार्थ - गारवेहिं - कों के उपचय द्वारा जो आत्मा को भारी बनाता है, उसे गौरव कहते हैं। इड्ढीगारवेणं - आचार्यपद, राजसम्मान आदि पद पाकर अभिमान करना और प्राप्त न होने पर उसकी लालसा रखना।। रसगारवेणं - षट् रसों की इच्छानुसार प्राप्ति होने पर आनन्द मानना। सायागारवेणं - साता का अर्थ है - सुख। सुख की आकांक्षा करना तथा सुख के साधनों के मिलने पर आनन्द मानना। “पडिक्कमामि तिहिं विराहणाहिं नाण-विराहणाए, दसण-विराहणाए, चरित्त-विराहणाए।" भावार्थ - तीन प्रकार की विराधनाओं, अर्थात् ज्ञान की विराधना, दर्शन की विराधना एवं चारित्र की विराधना से होने वाले दोषों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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