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आचारदिनकर ( खण्ड - ४ )
103 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
भावना का सम्यक् प्रकार से पालन न करने पर अतिचार लगता है ।
विशिष्टार्थ
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शयन
संस्तारक में जीव-जन्तुओं का प्रतिलेखन न करने और सुखपूर्वक लम्बे समय तक शयन करना, अथवा सुखद शय्या पर शयन करना आदि वितथकरण, अर्थात् अन्यथा प्रकार से कार्य करने सम्बन्धी अतिचार हैं ।
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आसने आसन की प्रतिलेखना न करना तथा यति-आचार के विरूद्ध गुरु के सम या उच्च आसन पर बैठना - ये आसन के वितथकरण सम्बन्धी अतिचार हैं I
अन्न-पाणे सैंतालीस दोष से युक्त आहार- पानी का सेवन करना - यह अन्न-पान वितथकरण सम्बन्धी दोष हैं ।
चेइय अयत्नापूर्वक और अयुक्तपूर्वक चैत्यवंदन करना, चैत्य - वितथकरण सम्बन्धी दोष है ।
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सिज्ज - अविधिपूर्वक शय्या बिछाना - यह शय्यारचनवितथकरण सम्बन्धी दोष है ।
काय शरीर, पात्र एवं उपधि की सम्यक् प्रतिलेखना न करना, काय-वितथकरण सम्बन्धी अतिचार हैं 1
उच्चारे - स्थण्डिल भूमि की सम्यक् प्रकार से प्रतिलेखना न करके मल-मूत्र का त्याग करना उच्चार - वितथकरण सम्बन्धी अतिचार
है ।
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समिईभावनात्ती १. ईर्या २. भाषा
३. एषणा ४.
आदान एवं ५. निक्षेपोत्सर्ग पाँच समितिओं का, पंचमहाव्रतों में प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावना कुल पच्चीस
इन सबका
इस प्रकार भावनाओं तथा मन-वचन - कायारूप तीन गुप्तियों का सम्यक् प्रकार से परिपालन न करने पर भावना - वितथकरण सम्बन्धी अतिचार लगते हैं
समिति, गुप्ति एवं
अइआरा करने योग्य कार्य को नहीं करना, अथवा नहीं करने योग्य कार्य को करना अतिचार कहलाता है । वे अतिचार सदैव ही आलोचना योग्य हैं ।
श्रावकों के एक सौ चौबीस अतिचार इस प्रकार
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