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आचारदिनकर (खण्ड-४) 104 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
संलेखना के पाँच, कर्मादान के पन्द्रह ज्ञान, दर्शन और चारित्र में प्रत्येक के आठ-आठ, तप के बारह, वीर्य के तीन, सम्यक्त्व के पाँच एवं बारह व्रतों में प्रत्येक व्रत के पाँच-पाँच (कुल साठ) - इस प्रकार एक सौ चौबीस अतिचार होते हैं।
पुनः गाथा में भी इन्हीं १२४ अतिचारों का उल्लेख किया गया
साधक प्रतिक्रमणसूत्र में सम्यक्त्व, संलेखना, बारह व्रत, कर्मदान, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, एवं वीर्य के अतिचारों की आलोचना करे। कायोत्सर्ग में अतिचार सम्बन्धी गाथाओं द्वारा अतिचारों की आलोचना करे। अतिचार की गाथाएँ निम्नांकित हैं -
"नाणंमि दसणंमि अ चरणंमि तवम्मि तहय विरयम्मि। आयरणं आयारो इह एसो पंचहा भणिओ।"
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य - इनका विधिपूर्वक . आचरण आचार कहलाता है और यह पाँच प्रकार का होता है। ज्ञानाचार के आठ भेद इस प्रकार हैं -
१. काल-आचार - वर्जित काल का त्याग करते हुए शेष कालों में अध्ययन करना, अथवा कालग्रहण आदि विधि-अनुसार अध्ययन करना।
२. विनय-आचार - गुरुजनों का उचित विनय करना। ३. बहुमान-आचार - गुरुजनों का आदर करना। ४. उपधान-आचार - अध्ययन हेतु आगमोचित तप करना।
५. अनिलवण - किसी भी दोष को नहीं छिपाना, अथवा संशयरहित होना।
६. व्यंजन-आचार - सूत्र का पाठ करना या उसका तात्पर्य स्पष्ट करना।
७. अर्थाचार - टीका, वृत्ति, वार्तिक, भाष्य आदि का तात्पर्य स्पष्ट करना।
८. सूत्रार्थआचार - सूत्र एवं अर्थ - दोनों की परस्पर संवादिता का निर्णय करना।
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