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आचारदिनकर (खण्ड-४)
98 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि विशिष्टार्थ -
प्रायच्छित्त करणेणं - प्रायश्चित्त शब्द प्रायः एवं चित्त- इन दो शब्दों से मिलकर बना है। इसमें प्रायः का अर्थ अधिकतर और चित्त का अर्थ मन या जीव होता है, अर्थात् मन के मलिन भावों का शोधन करने वाली या पापों का छेदन करने वाली क्रिया को प्रायश्चित्त कहते
विसोही करणेणं - आत्मा को निर्मल करने के लिए। इरियावहिसूत्र में निम्न आठ संपदा हैं -
१. इच्छ २. गम ३. पाण ४. ओसा ५. जे मे ६. एगिंदिया ७. अभिहया एवं ८. तस्सउत्तरी। इस सूत्र में आठ संपदा तीन आलापक एवं १६६ अक्षर हैं। कायोत्सर्ग की व्याख्या कायोत्सर्ग आवश्यक में की जाएगी (गई है)। अब अतिचारआलोचनासूत्र की व्याख्या करते हैं -
"इच्छामि ठामि काउस्सग्गं जो मे देवसिओ अइयारो कओ, काइओ वाइओ माणसिओ, उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो दुज्झाओ दुविचिंतिओ अणायारो अणिच्छियव्वो असमण पाउग्गो नाणे दसणे चरित्ते सुए सामाइए तिण्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायणं पंचण्हं महव्वयाणं छण्हं जीवनिकायणं सत्तण्हं पिंडेसणाणं अट्ठण्हं पवयण मायाणं नवण्हं बंभचेर गुत्तीणं दसविहे समणधम्मे समणाणं जोगाणं जं खण्डिअं जं विराहिअं तस्स मिच्छामि दुक्कडं।" भावार्थ -
हे भगवन् ! इच्छापूर्वक आज्ञा प्रदान करें। मैं दिवस संबंधी आलोचना करूं ? दिवस सम्बन्धी मुझसे जो अतिचार हुआ हो, उसकी आलोचना करता हूँ। ज्ञान, दर्शन, सर्वविरतिचारित्र, श्रुतधर्म तथा सामायिक के विषय में मैंने दिन में जो कायिक-वाचिक और मानसिक अतिचारों का सेवन किया हो, उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो। सिद्धान्त-विरूद्ध, मार्ग-विरूद्ध तथा कल्प-विरूद्ध, नहीं करने योग्य दुर्ध्यान किया हो, दुष्ट चिंतन किया हो, नहीं आचरण करने योग्य, अथवा श्रमण के लिए सर्वथा अनुचित- ऐसे व्यवहार से (इनमें से) जो कोई अतिचार सेवन किया हो, तत्संबंधी मेरा पाप मिथ्या हो एवं
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