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आचारदिनकर (खण्ड- ·8)
99 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
तीन गुप्ति, चार कषाय की निवृत्ति, पाँच महाव्रत, छः जीवनिकाय की रक्षा, सात पिंडैषणा, सात पाणैषणा, अष्ट प्रवचनमाता, नौ ब्रह्मचर्यगुप्ति, दस प्रकार के क्षमा आदि श्रमणधर्म सम्बन्धी कर्त्तव्य यदि खण्डित हुए हों, अथवा विराधित हुए हों, तो मेरे वह सब पाप निष्फल हों ।
विशिष्टार्थ.
देवसियं - दिवस सम्बन्धी जो कोई अपराध किए हों, अर्थात् जिससे संयम की विराधना हो ऐसे कार्य किए हों ।
आलोएमि - यहाँ आसमन्तात, अर्थात् पूर्णतः के अर्थ में और लोकृ धातु देखने के अर्थ में प्रयुक्त है। इसका अर्थ है- गुरु के समक्ष मैं सर्व अपराधों को प्रकट करता हूँ ।
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देवसियं - यहाँ दिवस शब्द से रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
देवसिओ दिवस के मध्य जो अतिचार लगे हों, अर्थात् आचार का अतिक्रम किया हो
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उमग्गो - मार्ग का अतिक्रमण किया हो, अर्थात् क्षायोपशम भाव में से औदयिक भाव में गया हो । ( क्षायोपशमिक भावरूप मार्ग का अतिक्रमण करके औदयिक भाव में गया हो )
दुज्झाओ - एकाग्रचित्त से आर्त- रौद्रध्यान किया हो ।
दुव्विचिंतिओ - चंचलचित्त द्वारा किसी प्रकार का कोई अशुभ चिन्तन किया हो । अणिच्छिअव्वो
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किया हो ।
नाणे- दंसणे-चरित्ता-चरिते सुए सामाइए ज्ञाने, अर्थात् ज्ञानाचार की दंसणे अर्थात् दर्शनाचार की, चरिताचरिते अर्थात चारित्राचार की, श्रुए अर्थात् आगम की, सामाइए अर्थात् सर्वविरतिरूप सामायिक की, मैंने कोई विराधना की हो ।
तिण्हंगुत्तीणं किया हो ।
मन-वचन-कायारूप त्रिगुप्तियों का पालन न
मन से भी जो इच्छनीय नहीं हैं- ऐसा कार्य
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