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आचारदिनकर (खण्ड- ४)
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
पंचिदिया - जिन जीवों में स्पर्श, रस, घ्राण, चक्षु एवं श्रोत ये पाँच इन्द्रियाँ होती हैं, उन्हें पंचिदिया जीव कहते हैं, जैसे जलचर, स्थलचर रूप तिर्यंच, मुनष्य, देव एवं नारक । सम्पूर्ण गर्भज के असंज्ञि एवं संज्ञि- ये दो भेद होते हैं ।
अभिहया - सम्मुख आते हुए जीवों को पैर से
ऊपर उठाकर फैंका हो ।
वत्तिया - जीवों को इकट्ठे करके धूलि से ढंका हो, अर्थात् आच्छादित किया हो ।
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जीवों को पैर से कुचला हो,
किलामिया - मरणतुल्य किए हों ।
ठाणा ओठाणं संकामिया जीवों को स्वस्थान से हटाकर अन्य स्थान पर रखा हो ।
निर्युक्ति में कहा गया है मैत्री मृदुता और मार्दव
ये गुण शिष्य के दोषों के आच्छादन में छत्र के समान हैं । मैत्री और मर्यादा में होने से आत्मा शीघ्र ही अपनी आलोचना करती हैं । कृतिकर्म से पापों का नाश होता है और उनके उपशमन से उनसे मुक्ति मिलती है इस प्रकार मिच्छामिदुक्कडं शब्द का संक्षिप्त अर्थ बताया गया है।
" तस्स उत्तरीकरणेणं पायच्छित्त करणेणं विसोही करणेणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए ठामि काउस्सग्गं । “ भावार्थ
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ईर्यापथिकी-क्रिया से लगने वाले पाप के कारण आत्मा मलिन हुई थी। उसकी शुद्धि मैंने “मिच्छामि दुक्कडं " द्वारा की है, तो भी आत्मा के परिणाम पूर्ण शुद्ध न होने से वह अधिक निर्मल न हुई हो, तो उसको अधिक निर्मल बनाने के लिए उस पर बार-बार अच्छे संस्कार डालने चाहिए। इसके लिए प्रायश्चित्त करना आवश्यक है । प्रायश्चित्त भी परिणाम की विशुद्धि के सिवाय नहीं हो सकता, इसलिए परिणाम- विशुद्धि आवश्यक है। परिणाम की विशुद्धता के लिए शल्यों का त्याग करना जरूरी है । शल्यों का त्याग और अन्य सब पापकर्मों का नाश कायोत्सर्ग से ही हो सकता है, इसलिए मैं कायोत्सर्ग करता
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