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आचारदिनकर (खण्ड-४) 96 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि विशिष्टार्थ -
इरियावहिअं - ईर्या का अर्थ गमन है, गमन-प्रधान जो मार्ग है, वह ईर्यापथ कहलाता है और ईर्यापथ में होने वाली क्रिया ऐर्यापथिकी कहलाती है।
गमणागमणे - किसी कार्य के लिए जाने तथा उस कार्य की समाप्ति होने पर लौटने को गमनामगन कहते हैं। यहाँ इस पद में समाहार द्वन्द्व समास है।
पाणक्कमणे - द्वीन्द्रिय जीवों को दबाया हो।
बीयक्कमणे - वनस्पति की उत्पत्ति हेतु बीज, समूर्छिन बीजाग्र (अंकुर), मूल, पर्व, स्कन्ध को दबाया हो।
हरियक्कमणे - कोपलों को दबाया हो।
यहाँ क्रमण का तात्पर्य दबाना तथा आक्रमण का तात्पर्य पीड़ा पहुचाना है।
___ओसा - रात्रि के समय शीत के कारण जो हिम, अर्थात् जलकण गिरते हैं तथा जो सूर्य की प्रथम किरणों से अशोषित होते हैं (उसे ओस भी कहते हैं)।
___दगमट्टी - जल से मिश्रित मिट्टी जिसमें पादप (पेड़, पौधे आदि) नहीं होते हैं।
एगिंदिया - जिनमें मात्र स्पर्शेन्द्रिय होती हैं, उन जीवों को एकेन्द्रिय जीव कहते हैं। जैसे पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु एवं वनस्पतिकाय के जीव।
बेइंदिय - जिन जीवों में स्पर्श एवं रसना- ये दो इन्द्रियाँ होती हैं, उन्हें बेइन्द्रिय (द्वीन्द्रिय) जीव कहते हैं। जैसे - कृमि, शंख, जलौक, कौड़ी, प्रवाल, शुक्ति आदि।
तेइंदिय - जिन जीवों में, स्पर्शन, रसन एवं घ्राण- ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं, उन्हें तेइन्द्रिय जीव कहते हैं। जैसे - चींटी, मकोड़ा, जूं, लीख, गदैया, खटमल, अत्कण, इन्द्रगोप आदि।
चउरिन्द्रिय - जिन जीवों में स्पर्श, रसन, घ्राण एवं चक्षु- ये चार इन्द्रियाँ होती हैं, उन्हें चतुरिन्द्रिय जीव कहते हैं, जैसे - मकड़ी, टिड्डी, मच्छर, भँवरा, मक्खी आदि।
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