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आचारदिनकर (खण्ड- ४)
92 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
हो, तो उसकी मैं क्षमा मांगता हूँ और जो कोई भी आशातना एवं अतिचार मिथ्याभाव के कारण हुआ हो, मन, वचन और काया से, क्रोध - मान-माया एवं लोभ के वश होकर जो कोई दुष्प्रवृत्ति हुई हो, अथवा सर्वकाल में सर्वप्रकार के मिथ्या उपचारों से, अष्ट-प्रवचन मातारूप सर्वधर्म कार्यों में अतिक्रमण हुआ हो, आशातना से हुई हो हे क्षमाश्रमण ! आपके समीप मैं उसका प्रतिक्रमण करता हूँ, निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ एवं उसके प्रति अपनी ममत्ववृत्ति का त्याग करता हूँ। विशिष्टार्थ -
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खमासमणो - जो मोक्ष के लिए प्रयत्न करता है और क्षमा आदि गुणों से युक्त दसविध धर्म का पालन करता है, वह श्रमण महाश्रमण कहलाता है 1
जावणिज्जाए - जो काल व्यतीत हो चुका है, उससे सम्बन्धित सुख-सुविधा पूछने को यापनीय कहते हैं ।
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निसीहियाए - प्राणातिपात आदि पाप - व्यापारों से निवृत्ति करने को नैषेधिकी कहते हैं ।
यह प्रथम इच्छा-निवेदन स्थान है। इसके बाद में यदि गुरु किसी कार्य में व्यस्त होते हैं, तो “प्रतीक्षस्व " - ऐसा शब्द कहते हैं, अर्थात् त्रिविध- मन, वचन और काया से संक्षेप में वन्दन करने की आज्ञा देते हैं । उस समय शिष्य संक्षिप्त वन्दन द्वारा " मत्थेण वंदामि " कहकर पुनः अपने कार्य में लग जाता है। यदि गुरु किसी कार्य में व्यस्त नहीं होते, तो उस समय वे " छंदेण" - ऐसा शब्द बोलते हैं, अर्थात् मुझे किसी भी प्रकार की कोई बाधा नहीं है । " जैसी तुम्हारी इच्छा" इन शब्दों के माध्यम से वे शिष्य को वंदन की अनुज्ञा प्रदान करते हैं ।
तब शिष्य कहता है - " अणुजाणह मे मिउग्गहं निस्सीही " मुझे आपके परिमित अवग्रह (क्षेत्र) में आने की अनुमति दीजिए । मिउग्गहं गुरु के आसपास के शरीर-परिमाण क्षेत्र ( गुरु - क्षेत्र) को कहते हैं ।
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