SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 93 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि ___ यह द्वितीय स्थान है। तत्पश्चात् गुरु कहते हैं -"अणुजाणामि", अर्थात् मैं तुम्हें अवग्रह में प्रवेश करने की अनुमति देता हूँ। तत्पश्चात् शिष्य नैषिधिकी का कथन, अर्थात् सर्व पापरूप व्यापारों का निषेध करके अवग्रह में प्रवेश करे। गुरु के शरीर से चारों दिशाओं में पुरुष-परिमाण आस-पास की जगह को अवग्रह कहते हैं। इस क्षेत्र में अनुज्ञापूर्वक गुरु के चरणों के निकट आकर, गुरु के आगे बैठकर, गुरु के पैरों पर शिष्य अपना ललाट लगाए तथा हाथों से पैरों को स्पर्श करके "अहोकायं-कायसंफासं" बोले। अहोकायं - गुरु के चरणों का। कायसंफासं - स्वयं के हाथ और ललाट से किया गया स्पर्श। यहाँ पूर्वपद अनुज्ञा का भी अर्थग्रहण किया गया है। "अ" का उच्चारण करते ही गुरु के पैरों पर अपने दोनों हाथों को रखे। ___ "हो" का उच्चारण करते ही दोनों हाथों को अपने ललाट पर लगाए, इसी प्रकार कायं एवं काय शब्द का उच्चारण करते हुए करे - इस प्रकार तीन आवर्त्त होते हैं। 'संफासं' शब्द बोलकर गुरु के पैरों पर अपना सिर रखे। तत्पश्चात् उन्नत, अर्थात् सीधे होकर बैठ जाए तथा ललाट पर अंजलीबद्ध करके गुरु के मुख की तरफ देखते हुए "खमणिज्जो भे किलामो अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कंतो" पद बोले। खमणिज्जो - क्षमा करें। किलामों - स्पर्श करने से उत्पन्न खेद को। दिवस अप्पकिलंताणं - दिन बाधा से रहित निकला। दिवसो - यहाँ दिवस शब्द का ग्रहण रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक आदि के सूचन हेतु किया गया है, किन्तु यहाँ दिवस शब्द का मुख्य अर्थ दिन ही है। यह वन्दन का तृतीय स्थान है। यहा गुरु "एवंतहत्ति" शब्द कहते हैं, अर्थात् जैसा तुम कह रहे हो, वैसा ही है। पुनः शिष्य गुरु के चरणों को अपने ललाट से स्पर्श करते हुए “जत्ता भे" शब्द बोले। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy