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आचारदिनकर (खण्ड-४) ___91 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
"इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए
निसीहिआए मत्थएण वंदामि।" भावार्थ -
हे क्षमाशील गुरु महाराज ! मैं सभी पापकार्यों का निषेध करके शक्ति के अनुसार मस्तक झुकाकर आपको वंदन करना चाहता
___"इच्छामि खमासमणो। वंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए।।१।। अणुजाणह मे मिउग्गहं ।।२।। निसीहि, अहो-कायं, काय, संफासं खमणिज्जो भे किलामो ?
____ अप्पकिलंताणं बहसुभेण भे दिवसो वइक्तो ?।।३।। जत्ताभे !।।४।। जवणिज्जं च भे !।।५।। खामेमि खमासमणो ! देवसिअं वइक्कम्मं ।।६।। आवस्सिआए पडिक्कमामि खमासमणाणं देवसिआए आसायणाए तित्तिसन्नयराए जं किंचि मिच्छाए, मणदुक्कडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए। कोहाए माणाए मायाए लोभाए सव्वकालिआए सव्वमिच्छोवयाराए सव्वधम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे अइआरो, कओ तस्स खमासमणो पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।।७।। भावार्थ -
हे क्षमाक्षमण। मैं अन्य सब प्रकार के कार्यों से निवृत्त होकर अपनी शक्ति के अनुसार आपको वन्दन करना चाहता हूँ। मुझे परिमित अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा दीजिए। सब अशुभ व्यापारों के त्यागपूर्वक आपके चरणों को अपने उत्तमांग (मस्तक) से स्पर्श करता हूँ। इससे आपको जो कोई खेद-कष्ट हुआ हो, उसके लिए मुझे क्षमा प्रदान करें। क्या आपका दिन शुभभाव से सुखपूर्वक व्यतीत हुआ है ? हे पूज्य ! आपका तप, नियम, संयम और स्वाध्यायरूप यात्रा निराबाध चल रहे हैं ? आपका शरीर इंद्रियाँ तथा मन कषाय आदि उपघात से एवं पीड़ा रहित हैं ? हे गुरु महाराज ! सारे दिन में मैंने जो कोई अपराध किया हो, उसकी मैं क्षमा मांगता हूँ। आवश्यक-क्रिया के लिए अब मैं अवग्रह से बाहर आता हूँ। दिन में आप क्षमाश्रमण की तेंतीस आशातनाओं में से कोई भी आशातना की
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