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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 90 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि ६. आलोचना - प्रायश्चित्त-विधि में गुरु के समक्ष आलोचना करते समय वन्दन करना। ७. संवरण - एकासण आदि के प्रत्याख्यान करते समय, अथवा दिवसचरिमादि के प्रत्याख्यान लेते समय, अथवा एकासन आदि के प्रत्याख्यान लेने के पश्चात् उपवास की भावना हो जाए, तो उपवास का प्रत्याख्यान लेते समय पुनः वन्दन करना। ८. उत्तमार्थ (अनशन-संलेखना हेतु) - संलेखना आदि करते समय वन्दन करना। इस प्रकार वन्दन के एक सौ बानवे स्थान होते हैं। वन्दन न करने के छः दोष - १. मान - शिष्य गुरु को वन्दन नहीं करता है, तो वह अहंकारी होता है। २. अविनय - गुरु को वन्दन न करने से शिष्य अविनीत होता है। ३. अबोधि - गुरु को वन्दन न करने से शिष्य को बोधि की प्राप्ति नहीं होती है। ४. खिंसा - गुरु को वन्दन न करने से शिष्य गुरु की अवहेलना एवं निंदा करने वाला बनता है। ५. नीच गोत्र - गुरु को वन्दन न कर उनकी अवहेलना करने से नीच गोत्र की प्राप्ति होती है। ६. भववृद्धि - गुरु को वन्दन नहीं करना भववृद्धि का हेतु बनता है। इस प्रकार वन्दन न करने के इन छ: दोषों सहित वन्दन के कुल १६८ स्थान हैं। अब वन्दन की व्याख्या करते हैं - शिष्य या श्रावक विधिवत् मुखवस्त्रिका एवं अंग की प्रतिलेखना करके मुनि दोनों हाथ से मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण ग्रहण करके, अथवा श्रावक मुखवस्त्रिका को धारण कर कुछ नीचे झुकते हुए निम्न वन्दन-सूत्र बोले - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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