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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 89 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि । (२८) उण (ऊण) - स्वर, व्यंजन आदि न्यूनाधिक बोलले हुए वन्दन करना। (२६) उत्तरचूलिय (उत्तरचूलिक) - वन्दन करने के बाद "मत्थएण वंदामि" इत्यादि जोर से बोलना। (३०) मूय (मूक) - गूंगे की तरह मन में बोलते हुए वन्दन करना। (३१) ढड्डर - वन्दन करते समय सूत्रपाठ जोर-जोर से बोलना। (३२) चुडुलिय (चुडुलिक) - रजोहरण को उल्मुक, अर्थात् मशाल की तरह हाथ में गोल-गोल घुमाते हुए वन्दन करना। उपर्युक्त बत्तीस दोषों से रहित शुद्ध वन्दन करना चाहिए। जैसा कि आगम में कहा गया है, बत्तीस एवं इसी प्रकार के अन्य दोषों से युक्त गुरु की विराधना करके यदि कोई गुरु को वन्दन या उनकी सेवा करता है, तो वह कर्म-निर्जरा के फल का भागी नहीं होता है, अपितु कर्म-बन्धन का ही भागी होता है। जो व्यक्ति बत्तीस दोषों से रहित होकर गुरु को वन्दन करता है, वह अल्पसमय में ही मोक्ष को, अथवा वैमानिक देवलोक को प्राप्त करता है। आठ करण (वन्दन करने के अवसर) - १. प्रतिक्रमण - प्रतिक्रमण में चार बार वन्दन करना। २. स्वाध्याय - स्वाध्याय करने हेतु या स्वाध्याय-प्रस्थापन के समय वन्दन करना। ३. कायोत्सर्ग - विगय (विकृति) के परिभोग के लिए कायोत्सर्ग करने हेतु वन्दन करना। ४. अपराध - अपराध की क्षमा माँगने से पूर्व वन्दन करना। ५. प्राघूर्णक (अतिथि) - प्राघूर्णक, अर्थात् अतिथि मुनि के आने पर यदि प्राघूर्णक दीक्षापर्याय में बड़ा हो, तो वहाँ स्थित लघु साधुओं द्वारा उन्हें वन्दन करना और प्राघूर्णक मुनि छोटे हों तो उनके द्वारा वहाँ स्थित ज्येष्ठ मुनियों को वन्दन करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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